Book Title: Atmakendrit evam Ishwarkendrit Dharm Deshna Author(s): Mangimal Kothari Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 1
________________ आत्म-केन्द्रित एवं ईश्वर-केन्द्रित धर्म-दर्शन -डा0 मांगीमल कोठारी (स्वतन्त्र चिन्तक, एसोसियेट प्रोफेसर दर्शन विभाग जोधपुर विश्वविद्यालय) धर्म और दर्शन के इतिहास में हमें प्राचीनकाल से ही दो भिन्न धाराएँ मिलती हैं जिन्हें मिलाने के कई प्रयास हुए हैं जो कई लोगों को शान्ति प्रदान अवश्य करते हैं परन्तु उससे जनित मौलिक कठिनाइयों को हल नहीं कर सकते । एक तो वे धर्म और दर्शन हैं जिनके केन्द्र में ईश्वर का प्रत्यय है और दूसरे वे जिनके केन्द्र में आत्मा का प्रत्यय है । ईश्वर-के िद्रत धर्म और दर्शन ___ पश्चिम एशिया के सभी धर्म-पारसी, यहूदी, ईसाई, इस्लाम ईश्वर-केन्द्रित हैं। उनके लिए ईश्वर और केवल ईश्वर ही अन्तिम प्रत्यय है । जगत की हर वस्तु उसके द्वारा रचित है । ईश्वर सर्वज्ञानी और सर्वशक्तिमान है, अर्थात् उसके लिए असम्भव नाम की कोई चीज नहीं। वह जगत का कारण है, उसका कोई कारण नहीं है । जड़ और जीव उसी महान कारण के कार्य हैं। किस प्रकार ? यह पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है । यह सब केवल उसके संकल्प के फल हैं न कि किसी सनातन समानान्तर सत्ता की नई व्यवस्थाएँ । तर्कबुद्धिजनित सभी दार्शनिक कठिनाइयाँ यहाँ आकर मिट जाती हैं। पश्चिम एशियाई धर्म अपनी धारणा में स्पष्ट है, एक मत है। चूंकि ईश्वर ने ही सभी जीवों की उत्पत्ति की इसलिए कोई भी जीव किसी भी प्रकार से ईश्वर के समकक्ष नहीं हो सकता । जीव चाहे कितना भी आत्म-विकास करले, ईश्वर तक भी पहुँच जाय, उसका ज्ञान ईश्वर से सर्वदा कम ही रहेगा। ' भारत में वैदिक युग में प्राकृतिक शक्तियों की पूजा प्रचलित थी और बहुदेववाद से एकेश्वरवाद (monotheism) विकसित होने लगा था । परन्तु उपनिषदों में तत्वमीमांसिक चिन्तन बहत हुआ जिसके फलस्वरूप सेमेटिक धर्मों की तरह भक्तिमार्ग विकसित नहीं हो सका और ज्ञानमार्ग के द्वारा एकेश्वरवाद की परिणति एकतत्ववाद (monism) में होने लगी। हालाँकि कुछ उपनिषदों ने एकेश्वरवाद को प्रचलित करने की कोशिश की, परन्तु उपनिषदों की मुख्य तत्व मीमांसा एकतत्ववाद की रही, जिसे उन्होंने ब्रह्म या आत्मा शब्दों से निर्देशित किया। इस प्रकार ईश्वरकेन्द्रित दर्शन होने के बजाय उपनिषद आत्मकेन्द्रित दर्शन बन गये और जीव और आत्मा को ही ब्रह्म के अर्थ में लेने लगे। ( ७६ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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