Book Title: Atmadharmi Acharya Hastimalji ki Lokdharmi Bhumika
Author(s): Sanjiv Bhanavat
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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________________ आत्मधर्मी आचार्य श्री की लोकधर्मी भूमिका आचार्य श्री हस्तीमलजी म. उत्कृष्ट संयम साधना के आत्मधर्मी आचार्य थे, पर लोकधर्म और लोकमंगल के प्रति कभी उन्होंने उपेक्षा का भाव नहीं रखा । आत्म- चैतन्य जागृत कर लोक में व्याप्त अज्ञान अंधकार और तन्द्रा को मिटाने की वे सतत प्रेरणा देते रहे । चाहे साधना का पक्ष हो, चाहे साहित्यसृजन की बात या इतिहास - लेखन का प्रसंग, प्राचार्य श्री लोकहित को सदैव महत्त्व देते थे, पर यह लोकहित आत्मानुशासित और आत्म जागरण प्रेरित हो, इस ओर वे सदा सजग और सचेष्ट रहते । डॉ. संजीव भानावत प्राचार्य श्री का व्यक्तित्व बहुमुखी और कृतित्व बहुआयामी था । समाज ज्ञान और क्रिया का सम्यक् विकास हो, इस दृष्टि से उन्होंने स्वाध्याय के साथ सामायिक और सामायिक के साथ स्वध्याय की प्रवृत्ति को जोड़ने पर बल दिया । स्वाध्याय में निरन्तर ताजगी आती रहे, मनन और चिन्तन चलता रहे, इस दृष्टि से उन्होंने साधना पर बल दिया, ज्ञान भंडार स्थापित किए, स्वयं साहित्य सृजन किया और नित नये अध्ययन-लेखन की प्रेरणा दी । आधुनिकता के साथ पारम्परिक शास्त्रीय ज्ञान जुड़े, यह उनकी समझ थी । लोक परम्परा को नकार कर पनपने वाली आधुनिकता के वे पक्षधर नहीं थे । उनका इतिहास-बोध अत्यधिक जागरूक था । धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परम्परानों को समझकर नवीन सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों के निर्माण की दिशा में बढ़ने के लिए उनकी बराबर प्रेरणा रही । लोक से कटकर धर्म व्यक्ति को एकान्तवादी और अकेला बना दे, इसकी अपेक्षा अच्छा यह है कि धर्म व्यक्ति में मैत्री, सहयोग, सहिष्णुता और वात्सल्य भाव जगाये, यह उन्हें अभीष्ट था । आत्म तत्त्व को बुलन्द और जागृत रखकर ही वे समाजधर्म को प्रतिष्ठित करना चाहते थे । Jain Educationa International समाज के सभी अंग फले-फूलें, पुष्ट और बलिष्ट हों, स्नेह, सेवा और परस्पर सहयोग करते हुए व्यक्ति और समाज का संतुलित विकास हो, यह उन्हें इष्ट था । अपने प्रवचन और लेखन में प्राचार्य श्री की यही दृष्टि बनी रही । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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