Book Title: Atma ka Swa Par Prakash 02 Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 1
________________ आत्माका स्व-परप्रकाश (२) प्राचार्य हेमचन्द्रने सूत्रमें अात्माको स्वाभासी और पराभासी कहा है। यद्यपि इन दो विशेषणोंको लक्षित करके हमने संक्षेपमें लिखा है (पृ. ११३) फिर भी इस विषयमें अन्य दृष्टिसे लिखना श्रावश्यक समझ कर यह थोड़ा-सा विचार लिखा जाता है । 'स्वाभासी' पदके 'स्व' का आभासनशील और 'स्व' के द्वारा आभासनशील ऐसे दो अर्थ फलित होते हैं पर वस्तुतः इन दोनों अर्थों में कोई तात्विक भेद नहीं। दोनों अर्थोंका मतलब स्वप्रकाशसे है और स्वप्रकासका तात्पर्य भी स्वप्रत्यक्ष ही है। परन्तु 'पराभासी' पदसे फलित होनेवाले द्रो अर्थोकी मर्यादा एक नहीं। पर का आभासनशील यह एक अर्थ जिसे वृत्तिमें प्राचार्य ने स्वयं ही बतलाया है और पर के द्वारा श्राभासनशील यह दूसरा अर्थ । इन दोनों अर्थो के भावमें अन्तर है । पहिले अर्थसे श्रात्माका परप्रकाशन स्वभाव सूचित किया जाता है जब कि दुसरे अर्थसे स्वयं श्रात्माका अन्यके द्वारा प्रकाशित होनेका स्वभाव सूचित होता है। यह तो समझ ही लेना चाहिए कि उक्त दो अर्थोंमेंसे दूसरा अर्थात् पर के द्वारा आभासित होना इस अर्थका तात्पर्य पर के द्वारा प्रत्यक्ष होना इस अर्थमें है। पहिले अर्थका तात्पर्य तो पर को प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी रूपसे भासित करना यह है । जो दर्शन आत्मभिन्न तत्वको भी मानते हैं वे सभी श्रात्माक परका अवभासक मानते ही हैं। और जैसे प्रत्यक्ष या परोक्षरूपसे पर का अवभासक आत्मा अवश्य होता है वैसे ही वह किसी-न-किसी रूपसे स्वका भी अवभासक होता ही है अतएव यहाँ जो दार्शनिकोंका मतभेद दिखाया जाता है वह स्वप्रत्यक्ष और परप्रत्यक्ष अर्थको लेकर ही समझना चाहिए । स्वप्रत्यक्षवादी वे ही हो सकते हैं जो शानका स्वप्रत्यक्ष मानते हैं और साथ ही शान-आत्माका अभेद या कथञ्चिदभेद मानते हैं। शंकर, रामानुज आदि वेदान्त, सांख्य, योग, विज्ञानवादी बौद्ध और जैन इनके मतसे आत्मा स्वप्रत्यक्ष है-चाहे वह श्रात्मा किसीके मतसे शुद्ध व नित्य चैतन्यरूप हो, किसीके मतसे जन्य ज्ञानरूप ही हो या किसीके मतसे चैतन्य-ज्ञानोभयरूर हो क्योंकि वे सभी प्रास्मा और शानका अभेद मानते हैं तथा ज्ञानमात्रको स्वप्रत्यक्ष हो मानते हैं। कुमारिल हो एक ऐसे हैं जो ज्ञानको परोक्ष मानकर भी आरमाको वेदान्तकी तरह स्व. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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