Book Title: Atma ka Swa Par Prakash 01
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 2
________________ 114 जैनदर्शनने अपनी अनेकान्त प्रकृति के अनुसार ही अपना मत स्थिर किया है। शान एवं प्रारमा दोनोंको स्पष्ट रूपसे स्व-पराभासी कहनेवाले जैनाचार्यों में सबसे पहिले सिद्धसेन ही हैं (न्याया० 31) / श्रा० हेमचन्द्रने सिद्धसेनके,ही कथनको दोहराया है। देवसूरिने प्रास्माके स्वरूपका प्रतिपादन करते हुए जो मतान्तरव्यावर्तक अनेक विशेषण दिये हैं (प्रमाणन० 7.54,55 ) उनमें एक विशेषण देहव्यापित्व यह भी है। श्रा० हेमचन्द्रने जैनाभिमत अात्माके स्वरूपको सूत्रबद्ध करते हुए भी उस विशेषणका उपादान नहीं किया। इस विशेषणत्यागसे श्रात्मपरिमाणके विषयमें (जैसे नित्यानित्यत्व विषयमें है वैसे ) कुमारिल के मतके साथ जैन मतकी एकताकी भ्रान्ति न हो इसलिए श्रा० हेमच द्रने स्पष्ट ही कह दिया है कि देहव्यापित्व इष्ट है पर अन्य जैनाचार्यों की तरह सूत्र में उसका निर्देश इसलिए नहीं किया है कि वह प्रस्तुतमें उपयोगी नहीं है / ई० 1636 ] [प्रमाण मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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