Book Title: Asht Lakshi Ek Parichay
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 5
________________ 40 अ ब (वायु का पर्याय व बवयो: ग्रहण कर ) आ र ( अग्नि का पर्याय) इस तरह राजा शब्द का अर्थ श्री अकबर बनता है । अनुसन्धान ३६ १०,२२,४०७ अन्त में कवि का कथन है कि २,२५,४०७ अर्थ जो अधिक हैं, ये अर्थ अष्टलक्षी में कहीं संभव नहीं हो, अथवा अर्थयोजना से मेल न खाते हो अतः इतने अर्थों का परित्याग कर देने पर ८,००,००० अर्थ अविघट एवं अविसंवादी रूप से शेष रहते हैं । सम्राट अकबर की प्रशंसा करते हुए कवि कहता है कि न्यायी होने से प्रजा को सुखदायक है, परम कृपाशील है, तीर्थस्थानों का करमोचक है, षड्दर्शनियों का सम्मान करने वाला है, शत्रुञ्जयादि महातीर्थों की रक्षा करने वाला है, जैन आदि समस्त धर्मों का भक्त है तथा सब लोगों का मान्य है । इस प्रकार गद्य में कहकर ८ श्लोकों में अकबर की गौरव प्रशस्ति दी 'राजानो ददते सौख्यम्' पद की टीका होने के कारण कवि ने इस वृत्ति का नाम अर्थरत्नावली वृत्ति दिया है। इस पद्यांश के आठ लाख अर्थ होने के कारण इसका प्रसिद्ध नाम अष्टलक्षार्थी भी है । कवि ने इसके पश्चात् ३३ श्लोकों की विस्तृत रचना- प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा दी है । इस ग्रन्थ को डॉ० हीरालाल रसिकदास कापड़िया ने सम्पादित कर अनेकार्थरत्नमञ्जूषा में विस्तृत भूमिका के साथ प्रकाशित किया है। यह ग्रन्थ श्रेष्ठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था सूरत की ओर से ईस्वी सन् १९३३ में प्रकाशित हुआ है । सम्पादक ने रचना - प्रशस्ति पद्य ३२ में श्रीविक्रमनृपवर्षात्, समये रसजलधिरागसोम (१६४६ ) मिँते में रस शब्द को मधुरादि षड् रस मानकर छ: की संख्या दी है जबकि यहाँ रस शब्द से शृङ्गारादि नवरसा: नौ अंक का ग्रहण किया जाना उपयुक्त है, क्योंकि प्रशस्ति पद्म २४-२५ के अनुसार सम्राट अकबर ने जिनचन्द्रसूरि को युगप्रधान पद १६५९ में ही दिया था। इसी ग्रन्थ के पृष्ठ ६५ तथा १५ वीं पंक्ति में संवत् ु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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