Book Title: Ashiyai Sraman Parampara Ek Vihangam Drushti
Author(s): Chandrashekhar Prasad
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 8
________________ की मूल भाषा के सन्निकट की प्राचीन भारतीय भाषा है। इन देशों की भाषाओं में पालि के शब्द बहुतायत में मिलते हैं। तिब्बती साहित्य तो विशुद्ध रूप से बौद्ध साहित्य है। समुन्नत चीनी भाषा और साहित्य भी बौद्ध धर्म एवं परम्परा से मिलकर और अधिक समुन्नत और समृद्ध हुए। गांधीजी के तीन बन्दर जो उन्हें चीन से प्राप्त हुए थे, उनकी कहानी भी बौद्धधर्मोद्भूत है। सम्पूर्ण जापान में पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के रूप में मनाया जाने वाला लोक नृत्य एवं लोक गीतों से सराबोर उरावोन उत्सव का स्रोत उलम्बन सूत्र है जिसमें धर्म सेनापति महामौद्गल्यायन द्वारा अपनी मां की सद्गति के लिये किए गये प्रयत्न की कथा है। जापान का विश्वप्रसिद्ध 'नो' ड्रामा बौद्ध मन्दिरों में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा विकसित हुआ है। तिब्बती मंदिरों में आकर्षक नृत्य और संगीत का सम्पादन होता है। चित्रकला में तिब्बती थंका विश्वप्रसिद्ध है और इसकी विषय-वस्तु बौद्ध शास्त्रों में वणित बुद्ध, बोधिसत्त्व एवं उनका लोक है। कम्पचिया के आंकोरवाट् और इन्डोनेशिया के बोरोबुदुर के मन्दिर स्थापत्य कला के अपूर्व नमूने हैं। बर्मा के पैगोडा, थाईलैन्ड के वाट्, तिब्बती गोम्फा में अनेकों अपनी भव्यता के और कलात्मकता के लिए प्रसिद्ध हैं। जापानी मन्दिर काष्ठनिर्मित ही हैं, पर उनसे लगा उद्यान उनके सौम्य वातावरण को और सौम्य बना देता है। क्योतो के रियोआनजी का विश्वविश्रुत राक् गार्डेन, सीमित में असीमित को आभासित करने का मानव प्रयास अद्वितीय है। अपने देश में भी अजन्ता की चित्रकारी, सांची का भव्य स्तूप, नालन्दा महाविहार का विशाल भग्नावशेष एक अति सुसंस्कृत समाज के उत्कर्ष की मूल गाथाएँ हैं। एशियाई बौद्ध श्रमण परम्परा की एशिया के बदलते राजनैतिक परिवेश में क्या स्थिति रहेगी, यह कुछ देशों में स्पष्ट नहीं है, विशेषकर, साम्यवादी देशों में / चीन के साम्यवादी होने के साथ श्रमण परम्परा वहाँ समाप्त कर दी गई है, ऐसा अनुमान किया जाता है। पर विश्व मंच पर बौद्धधर्म के अध्ययन और उसकी उपयोगिता की बात जहां होती है, चीन भी उसमें भागीदार बनने लगा है। चीन के रास्ते ही अन्य साम्यवादी देश भी जायेंगे, यह सोचना भी तर्क-संगत है / अन्य देशों में यह परम्परा पूर्ण ओजसः जीवित है और वर्तमान में भी इसकी उपयोगिता का अनुभव सभी स्तरों पर किया जा रहा है। बौद्ध तर देशों में भी इसकी लोकप्रियता बढ़ रही है। जैनधर्म एवं परम्परा जो स्वदेश के ही विशेष वर्ग में सिमट कर रह गई है, अपनी परिधि से निकलकर सम्पूर्ण मानव-समाज के लिए कार्य करे तो मानवीय गुणों के विकास एवं मानवीय समस्याओं के समाधान में सहयोग मिलेगा और एक सुन्दर समाज के निर्माण का आदर्श साकार होगा। सब का दुःख ही मेरा दुख है जो अस्तित्व है, वही जीवन है। जीवन एक निधि है जिसके मूल्य न शून्य है, नक्षणिक / यह महाचैतन्य की अभिव्यक्ति है / जब व्यक्ति जीवन को कर्म की ओर मोड़ता है, और उस कर्मण्यता में मानव की हित-चिता का अमत मिलता है, तभी वह संतलित स्थिति प्राप्त करता है। इस सम्बन्ध में रन्तिदेव का यश ध्यान देने योग्य है। राजा रन्तिदेव को जो धन प्राप्त होता उसे वे स्वयं भूखे और निर्धन रहकर दूसरों को दे डालते थे। यों अड़तालीस दिन बीत गए और भूख-प्यास का दुःख सहते हुए कहीं से रसहार उन्हें मिला। उसी समय ब्राह्मण अतिथि आ गया / श्रद्धा से प्रेरित रन्तिदेव ने अपना कुछ भाग उसे दे दिया। उस अतिथि में विष्णु के दर्शन उन्होंने किए। ब्राह्यण खाकर चला गया। उसी समय एक शुद्र आया। रन्तिदेव ने उसमें भी भगवान का रूप देखा और एक भाग उसे दे दिया। उसके चले जाने पर कुत्तों से घिरा हुआ एक श्वपाक चांडाल आया और भूख की टेर लगाकर राजा से कुछ खाने को मांगा। राजा ने जो बचा था, वह भी आदर के साथ उसे देकर श्वापक और उसके श्वगण को प्रणाम किया। अब केवल एक व्यक्ति के लिए पर्याप्त भोजन बच रहा था। जैसे ही उन्होंने उसे पीना चाहा की एक पुल्कस ने आ कर आबाज लगाई, "मुझ अपवित्र को भी कुछ जल दो।" उसकी वह करुणा वाणी सुनकर रन्तिदेव का मन संतप्त हो गया और उन्होंने प्यास से मरणप्राय होते हुए भी वह पानी उसे देते हुए निम्नलिखित वाक्य का उच्चारण किया : न कामयेऽहं गतिमिश्वरात्परामष्टद्वियुक्तामपुनर्भवं वा / / आति प्रपद्येऽखिलदेहभाजामन्तः स्थितो येन भवन्त्यदुःखा / मैं भगवान से अपने लिए सद्गति नहीं चाहता, न आठ सिद्धियों से युक्त सम्पत्ति ही, न मोक्ष या निर्वाण की मुझे चाह है। मेरी तो यही इच्छा है कि सब देह-धारियों का दुःख सिमट कर मेरे ही अन्तःकरण में भर जाए, जिससे वे दुःख से छूट सके / उस युग के लेखक ने इस भावना को अमृत वचन (अमृतं वचः) कहा है। सचमुच मानव के कंठ से निकलनेवाली इस प्रकार की वाणी मृत्यु-रहित ही है। पूर्व युग में यह परम भागवतों और बोधिसत्वों की वाणी थी और आज के युग में अपने-आप को मानव हित में विगलित करनेवाले महात्माओं की वाणी भी यह है / डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल (राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त अभिनन्दन ग्रंथ की भूमिका से साभार आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्य' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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