Book Title: Arth me Mul aur uska Samadhan Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 7
________________ 86 : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य पुरुषका लक्षण है इसलिये 'दण्डी' यह पद लक्षणवचन है और पुरुष लक्ष्य है इसलिये 'पुरुषः' यहाँपर लक्ष्यवचन है / ये दोनों वचन भी एकार्थके प्रतिपादक है क्योंकि दण्डीशब्दसे दण्डविशिष्टका बोध होता है / दण्डविशिष्ट यहांपर पुरुषपदार्थ है वही पुरुषपदार्थ पुरुषपदका भी अर्थ होता है। इस तरह अनात्मभूतलक्षणमें भी लक्ष्यवचन और लक्षणवचनका एकार्थप्रतिपादकत्वरूप समानाधिकरण्य रहता ही है। जहां यह नहीं हो, वह लक्षण दूषित कहा जाता है। जैसे 'विषाणी पुरुषः' यहांपर 'विषाणी' इस लक्षणवचनका विषाणविशिष्ट अर्थ होता है लेकिन पुरुषपदार्थ विषाणविशिष्ट नहीं होता, इसलिये विषाणी और पुरुषः' इन दोनों वचनोंमें एकार्थप्रतिपादकत्वका अभाव होनेसे यह लक्षण असंभवित कहा जाता है / जैनमित्र, 24 अगस्त 1933, अंक 43 वर्ष 24 Nandanwar. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7