Book Title: Arshabhi Vidya Parichay
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 3
________________ मार्च २०१० १२५ ग्रन्थ-परिचय इस ग्रन्थ में पाँच अध्याय हैं जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : प्रथम अध्याय - इस अध्याय में २६ गद्य सूत्र हैं । (१-२) प्रारम्भ में वृष शब्द की व्युत्पत्ति देते हुए कहा है कि, वृषभदर्शन का अध्येता एवं आचारक चौदह गुणस्थानों का आरोहण करते हुए शाश्वत सिद्ध सुख को प्राप्त करता है, अत: 'आर्षभी आहती विद्या' की उपासना करो, जिससे दुरन्त मृत्यु पथ को पार कर जाओगे।। (३-५) सर्वप्रथम आत्मतत्त्व को पहचानो । कर्म निर्जरा के लिए तीन तत्त्व प्रधान हैं :- गुरुतत्त्व, देवतत्त्व, धर्मतत्त्व । इनमें प्रथम गुरुतत्त्व है । गुरुतत्त्व का वर्णन करते हुए लिखा है :- अपरिग्रही, निर्मम, आत्मतत्त्वविद्, छत्तीस गुणों से युक्त गुरु ही आराधनीय होता है। (६) वह आर्षभायण रागादिनिवृत्त, गुणवान, गुरुनिर्देशपालक और द्वादशांगी विद्या का पारंगत होता है। ऐसे ही आराध्य गुरुतत्त्व की देशव्रतियों को उपासना करनी चाहिए । (७-८) श्रमणोपासक के लिए विविध विज्ञान, अतिशय श्रुत-अवधि, काल-ज्ञान वेत्ता युगप्रधान ही सेव्य है । (९) जो ईषत् द्वादशांगीवेत्ता हैं, क्षेत्र-कालोचित व्रतचर्या का पालन करते हैं, स्वधर्म सत्ता रूप सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं, उन श्रमणों का उपदेश ही देशिकों को श्रवण करना चाहिए और आज्ञानुसार ही आचरण करना चाहिए । (१०-११) स्वात्मज्ञानविद् कोविद देशवृत्ति-परायण गुरुप्रासाद से ही संसार सागर से पार होते हैं, अतः आद्य गुरुतत्त्व ही कर्मनिर्जरा का कारण है । (११) इसीलिए भगवान आदिदेव ने कैवल्यप्राप्ति के पश्चात् वाचंयमों की मनःशुद्धि, जनोपकार और विश्वहित के लिए गुरुतत्त्व का प्रतिपादन किया है । (१२) दुर्दमनीय मोह को जानकर देशवृत्ति-धारक कठोरतापूर्वक सर्वदा आचाम्ल तप करते हुए द्वादशांगी विद्या का श्रवण करे । (१३) संयतात्मा मुमुक्षु आवश्यक कर्म के पश्चात् पंचमुष्टि लुंचन कर, परिग्रह त्यागकर, गुरुकुलनिवासी होकर, आज्ञापालक होकर, निरवद्य भिक्षाग्रहण करते हुए अन्तेवासी बनकर द्वादशांगी का अध्ययन करे ।

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