Book Title: Arsha Grantho me Vyavruhatta paribhashika
Author(s): Aditya Prachandiya
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

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Page 8
________________ साध्वीरत्नपुष्वती अभिनन्दन ग्रन्थ (क) भावसंवर-जो चेतन परिणाम कर्म के आस्रव को रोकने में कारण हैं, उसे निश्चय से भावसंवर कहते हैं। (ख) द्रव्यसंवर-जो द्रव्यास्रव को रोकने में कारण हो, उसे द्रव्यसंवर कहते हैं। समिति-समयन्ति अस्याम् इति । सम् उपसर्ग इण धातु में इक्तन प्रत्यय करने पर 'समिति' शब्द बनता है । लोक में इसका अर्थ 'सभा' है और आध्यात्मिक अर्थ में आत्मा में सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति होना माना गया है-6 सम्यगिति समितिरिति । सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है-यथा पाणि पोड़ा परिहारार्थ सम्यगमनं समिति । इस प्रकार जैन दर्शन में चलने-फिरने, बोलने-चालने और आहार ग्रहण करने में, वस्तु को उठाने-धरने में और मल-मूत्र को निक्षेप करने में सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करना अथवा प्राणी पीड़ा के परिहार के लिए सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करना समिति है । वस्तुतः चारित्र के अनुकूल होने वाली प्रवृत्ति को समिति कहा जाता है । इस आधार पर समिति के पाँच भेद किए गए हैं।8 (१) ईर्या समिति-इस समिति के अन्तर्गत क्षुद्र जन्तु रहित मार्ग में भी सावधानी से गमन करना होता है। शरीर प्रमाण (या गाड़ी के जुए जितनी) भूमि को आँखों से देखकर चलना ईर्या समिति है। (२) भाषा समिति-इसमें स्व-परहितकारक वचन बोलना होता है। वस्तुतः निष्पाप भाषा का प्रयोग भाषा समिति है। (३) एषणा समिति-इसमें आहार बिना स्वाद के ग्रहण करना होता है । निर्दोष आहार, पानी आदि वस्तुओं का अन्वेषण करना एषणा समिति है । एषणा के तीन प्रकार हैं क) गवेषणा-शुद्ध आहार की जाँच । (ख) ग्रहणषणा-शुद्ध आहार का विधिवत् ग्रहण ।। (ग) परिभोगषणा-शुद्ध आहार का विधिवत् परिभोग । (४) आदान निक्षेपण समिति-ज्ञान के उपकरण, संयम तथा शौच के उपकरण यत्नपूर्वक उठाना-रखना । वस्तु, पात्र आदि को सावधानी से लेना-रखना आदान निक्षेप समिति है। (५) प्रतिष्ठापना समिति-एकान्त स्थान, छिद्र रहित स्थान में मुत्र विष्टा त्याग करना प्रतिष्ठापन समिति कहते हैं । मल-मूत्र आदि का विधिपूर्वक विसर्जन करना प्रतिष्ठापना समिति है। इसे उत्सर्ग समिति संज्ञा से भी अभिहित करते हैं । सल्लेखना-सल्लेखनं-सल्लेखना । सम्यक् प्रकारेण निरीक्षणं । 'लिख' धातु में ल्युट प्रत्यय करने पर 'लेखना' शब्द निष्पन्न हुआ। इस शब्द में 'सम्' उपसर्ग लगाने पर 'सल्लेखना' शब्द निष्पन्न हआ जिसका अर्थ है भले प्रकार से लेखना अर्थात् कृश करना । जिनवाणी में भली प्रकार से काय तथा कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना कहा गया है। वस्तुतः मारणान्तिक तपस्या का नाम ! सल्लेखना है । अन्तिम आराधना को स्वीकार करने वाला श्रावक अनशन करने के लिए उससे पूर्व विविध प्रकार की तपस्याओं के द्वारा शरीर को कृश करता है । अनशन के योग्य बनाता है, उस तपस्या-विधि का नाम मारणान्तिकी सल्लेखना है। १६८ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य TOT. .... www.jainelib

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