Book Title: Arihant Arhant Aruhant
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 4
________________ शास्त्र होना चाहिए, अलग विधि-विधान होना चाहिए। तभी जनता का वास्तविक हित हो सकता है, अन्यथा जो शास्त्र चाल युग की अपनी दुरूह गुत्थियों को नहीं सुलझा सकते, वर्तमान परिस्थितियों पर प्रकाश नहीं डाल सकते, वे शास्त्र मानव-जाति के अपने वर्तमान युग के लिए अकिंचित्कर है, अन्यथा सिद्ध है। यही कारण है कि तीर्थंकर भगवान् पुराने शास्त्रों के अनुसार हूबहू न स्वयं चलते हैं, न जनता को चलाते हैं। स्वानुभव के बल पर संयमोचित नये विधि-विधान का निर्माण करके जनता का कल्याण करते हैं, अतः वे आदिकर कहलाते हैं।' 1. उपर्युक्त निबन्ध में 'अरिहन्त, अरहन्त तथा अरुहन्त' तीन शब्दों का प्रयोग किया गया है। और, उनके अर्थ भी भिन्न-भिन्न रूप से व्याख्यायित किए गए हैं। किन्तु, प्राचीन आगमों का अवलोकन करते हैं, तो वहाँ सर्वत्र 'परहन्त' शब्द का ही प्रचुर प्रयोग है। प्राचारांग, सूत्रकृतांग, समवायांग आदि अनेक आगम एतदर्थ द्रष्टव्य है। वहाँ कहीं 'अरहा' शब्द का प्रयोग है, तो कहीं 'अरहताणं' का। भगवती सूत्र के टीकाकार अभयदेव सूरि ने भी 'परहन्त' पाठ को ही मुख्य रखा है और 'अरिहन्त' को अपनी टीका में पाठान्तर के रूप में अंकित किया है। भगवती आराधना आदि उत्तरकालीन ग्रन्थों में भी 'अरहन्त' शब्द ही प्रयुक्त है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में मूल शब्द 'अर्हत्' मान कर, उसके ही अकार, इकार, उकार, उच्चारण के रूप में तीन विकल्प प्रस्तुत किए हैं। अर्हत् शब्द मूलत: 'अर्ह पूजायाम्' धातु से निष्पन्न है। इसीलिए अरहन्त भगवान् को त्रिलोक-पूजित के रूप में उपास्य देव माना गया है। इस सम्बन्ध में प्राचीन शिलालेख का एक महत्वपूर्ण प्रमाण भी हमारे समक्ष है। उड़ीसा के उदयगिरि-खण्डगिरि पर्वत में कलिंग सम्राट खारवेल का शिलालेख अंकित है, जो ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व का प्रमाणित हुआ है। उसमें भी णमो अरहंताणं' पाउ ही उल्लिखित है। वैसे साधक अपनी भावनानुसार किसी भी प्रयोग का उपयोग कर सकता है। इससे सर्वत्र परमात्म स्वरूप के बोध के साथ स्व-स्वरूप के बोध की उपलब्धि होगी। " म अहत्' मान कर, प्रस्तुत किए है। : अर्ह पूजायाम के रूप में उपा 46 पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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