Book Title: Arhat ka Virat Swarup
Author(s): Chandanmuni
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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Page 3
________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म चिन्तन अहं के आदि में अकार का प्रयोग हुआ है और अन्त में "ह" आया है । "र" इन दोनों के मध्य ऊर्ध्वगामी बना है । अकार अपने आप में बड़ा प्रभावापन्न अक्षर माना गया है। गीता में योगेश्वर कृष्ण ने तो यहाँ तक कह दिया है- गीता १० / ३३ "अक्षराणामकारोऽस्मि " अर्जुन ! अक्षरों में मैं अकार हूँ । अर्हं की व्याख्या करते हुए प्राचीन आचार्य कहते हैंअकारः प्रथमं तत्वं सर्वभूताभयप्रदम् । कण्ठदेशं समाश्रित्य वर्तते सर्वदेहिनाम् ॥ सर्वात्मकं सर्वगतं, सर्वव्यापि सनातनम् । सर्वसत्त्वाश्रितं दिव्यं वितित - पापनाशनम् ॥ सर्वेषामपि वर्णानां स्वराणां च धुरिस्थितम् । व्यंजनेषु च सर्वेषु, ककारादिषु संस्थितम् ॥ अकार प्रथम तत्त्व है । सब भूतों को अभय प्रदान करने वाला है । यह सभी देहधारियों के कण्ठदेश को आश्रित कर विद्यमान है । व्याकरणकार भी कहते हैं - " अकुहविसर्गा कण्ठया: " अकार का उच्चारण स्थान कण्ठ है । यह सर्वात्म, सर्वगत, सर्वव्यापि सनातन तत्त्व माना गया है । यह समस्त सत्त्वों पर, सद्गुणों पर आश्रित, दिव्य, सुचिन्तित तथा पापनाशक है। सभी वर्णों में, स्वरों में यह अग्रसर हैप्रथम स्थान पर है । 'क्' आदि सभी व्यंजनों में सर्वप्रथम यही प्राण रूप में वर्तमान रहता है । तन्त्रमन्त्रादि प्रयोगों में, समग्र विद्याओं में इसका विशिष्ट स्थान है । अईं का मध्याक्षर “र्” अग्नि-बीज है । वैदिक वाङमय में उल्लेख है - "रं बीजं वहि ध्यायेत्” । “रकार” को अग्नि तत्त्व का प्रतीक माना गया है । मन्त्र- वेत्ता आचार्य कहते हैं arcaran संकाशं सर्वेषां शिरसि स्थितम् । विधिना मंत्रिणा ध्यातं, त्रिवर्गफलदं स्मृतम् ॥ यस्य देवाभिधानस्य मध्ये ह्येतद् व्यवस्थितम् । पुण्यं पवित्रं मांगल्यं, पूज्योऽसौ तत्वदशभिः ॥ "र" कार अग्नि के समान दीप्त तथा सब अक्षरों के सिर पर स्थित है । जो विधिवत् इसका ध्यान करता है, त्रिवर्ग - धर्म, अर्थ, काम रूप फल प्राप्त कर लेता है । जिस देवता के नाम में, यह मध्य में स्थित हो जाता है, तत्त्वदर्शियों का कथन है, यह पूजनीय "रकार" तदनुरूप पुण्य, पवित्र, मांगलिक सिद्ध होता है । इसीलिए राम, हरि, हर, वीर, पार्श्व आदि शक्तिसम्पन्न नामों में "र" का अस्तित्व विद्यमान है । अन्त में प्रयुक्त "ह" वर्ण आकाश तत्त्व का सूचक है । आचार्य कहते हैं--- सर्वेषामपि भूतानां नित्यं यो हृदि संस्थितः । पर्यन्ते सर्ववर्णानां सकलो निष्कलस्तया ॥ हकारी हि महाप्राणः, लोकशास्त्रेषु पूजितः । विधिना मंत्रिणा ध्यातः, सर्वकार्यप्रसाधकः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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