Book Title: Ardhamagadhi Agam Sahitya me Samadhi Maran ki Avdharna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf View full book textPage 6
________________ 85 अर्धमागधी आगमसाहित्य में समाधिमरण करे इसका उल्लेख करते हुए आचारांगकार कहता है कि ऐसा भिक्षु ग्राम, नगर, कर्वट, आश्रम आदि में जाकर घास की याचना करे और उसे प्राप्त कर गांव के बाहर एकांत में जाकर जीव-जन्तु, बीज, हरित आदि से रहित स्थान को देखकर घास का बिस्तर तैयार करे और उस पर स्थित होकर इत्वरिक अनशन अथवा प्रायोपगमन स्वीकार करे। ज्ञातव्य है कि आचारांगकार भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनिमरण और प्रायोपगमन ऐसे तीन प्रकार के समाधिमरण का उल्लेख करता है। इसमें भक्त प्रत्याख्यान में मात्र आहारादि का त्याग किया जाता है, किन्तु शारीरिक हलन-चलन और गमनागमन की कोई मर्यादा निश्चित नहीं की जाती है। इंगितमरण में आहार त्याग के साथ ही साथ शारीरिक हलन-चलन और गमनागमन का एक क्षेत्र निश्चित कर लिया जाता है और उसके बाहर गमनागमन का त्याग कर दिया जाता है। प्रायोपगमन या पादोपगमन में आहार आदि के त्याग के साथ-साथ शारीरिक क्रियाओं का निरोध करते हुए मृत्युपर्यन्त निश्चल रूप से लकड़ी के तख्ते के समान स्थिर पड़े रहना पड़ता है। इसीलिए आचारांगकार ने प्रायोपगमन संथारे के प्रत्याख्यान में स्पष्ट रूप से यह लिखा है कि काय, योग एवं ईर्या का प्रत्याख्यान करे। वस्तुतः यह तीनों संथारे की क्रमिक अवस्थाएँ हैं। आचारांग में समाधिमरण का विवरण क्रम से निर्ममत्व की स्थिति को प्राप्त धैर्यवान, आत्मनिग्रही और गतिमान साधक अद्वितीय इस समाधिमरण की साधना हेतु तत्पर हो । वे धर्म के पारगामी ज्ञान पूर्वक अनुक्रम से दोनों ही प्रकार के आरम्भ का (हिंसा का) परित्याग कर दें। वे कपायों को कुश करते हुए आहार की मात्रा को भी अल्प करें और परिषहों को सहन करें और इस प्रकार करते हुए जब अति ग्लान हो जाय तो आहार का भी त्याग कर दें। ऐसी स्थिति में न तो जीवन की आकांक्षा रखें और न मरण की, अपित जीवन एवं मरण दोनों में ही आसक्त न हो। वे निर्जरापेक्षी मध्यस्थ समाधि भाव का अनुपालन करे तथा राग-द्वेष आदि आन्तरिक परिग्रह तथा शरीर आदि बाह्य परिग्रह का त्याग कर शुद्ध अध्यात्म का अन्वेषण करे। __यदि उन्हें अपने साधनाकाल में किसी भी रूप में आयुष्य के विनाश का कोई कारण जान पड़े तो वह शीघ्र ही समाधि मरण का प्रयत्न करें। ग्राम अथवा अरण्य में जहाँ हरित एवं प्राणियों आदि का अभाव (अल्पता ) हो, उस स्थण्डिल भूमि पर तृण का बिछौना तैयार करे और वहाँ निराहार होकर शान्त भाव से लेट जाय। मनुष्य कृत अथवा अन्य किसी प्रकार के परीषह से आक्रान्त होने पर भी मर्यादा का उल्लघंन न करे तथा परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करे। आकाश में विचरण करने वाले पक्षी एवं रेंगने वाले प्राणी यदि उसके शरीर का मांस नोचें, रक्त पीये तो भी न उन्हें मारे और न उनका निवारण करें और न उस स्थान से उठकर अन्यत्र जाय, अपितु यह विचार करे कि ये प्राणी मेरे शरीर का ही नाश कर रहे हैं, मेरे ज्ञानादि गुणों का नहीं। वह आश्रवों से रहित एवं आत्म तुष्ट हो उस पीड़ा को समभाव से सहन करे। ग्रन्थियों अर्थात् अन्तर-बाह्य परिग्रह से रहित मृत्यु के अवसर के पारंगत भिक्षु के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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