Book Title: Arddhmagadhi Agam Sahitya Ek Vimarsh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
शती के उत्तरार्ध में अस्तित्व में आया है। छेद वर्ग में महानिशीथ का उद्धार आचार्य हरिभद्र ने किया था, यह सुनिश्चित है। आचार्य हरिभद्र का काल ई.सन् की आठवीं शती माना जाता है। अतः यह ग्रन्थ उसके पूर्व ही निर्मित हुआ होगा। हरिभद्र इसके उद्धारक अवश्य है किन्तु रचयिता नहीं। मात्र इतना माना जा सकता है कि उन्होंने इसके त्रुटित भाग की रचना की हो। इस प्रकार इसका काल भी आठवीं शती से पूर्व का ही है।
मलसत्रों के वर्ग में दशवकालिक को आर्य शय्यंभव की कृति माना जाता है। इनका काल महावीर के निर्वाण के 75 वर्ष बाद है। अतः यह ग्रन्थ ई.पू. पांचवीं-चौथी शताब्दी की रचना है। उत्तराध्ययन यद्यपि एक संकलन है किन्तु इसकी प्राचीनता में कोई शंका नहीं है। इसकी भाषा-शैली तथा विषय-वस्तु के आधार पर विद्वानों ने इसे ई.प. चौथी-तीसरी शती का ग्रन्थ माना है। मेरी दृष्टि में यह पूर्व प्रश्नव्याकरण का ही एक विभाग था। इसकी अनेक गाथायें तथा कथानक पालित्रिपिटक साहित्य तथा महाभारत आदि में यथावत् मिलते हैं। दशवैकालिक और उत्तराध्ययन यापनीय और दिगम्बर परम्परा में मान्य रहे है अतः ये भी संघ भेद या सम्प्रदाय भेद के पूर्व की रचना है। अतः इनकी प्राचीनता में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। आवश्यक श्रमणों दैनन्दिन क्रियाओं का ग्रन्थ था अतः इसके कुछ प्राचीन पाठ तो भगवान महावीर के समकालिक ही माने जा सकते हैं। चूंकि दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और आवश्यक के सामायिक आदि विभाग दिगम्बर और यापनीय परम्परा में भी मान्य रहे हैं, अतः इनकी प्राचीनता असंदिग्ध है।
प्रकीर्णक साहित्य में नौ प्रकीर्णको का उल्लेख नन्दीसूत्र में है अतः ये सभी नन्दीसूत्र से तो प्राचीन हैं ही, इसमें सन्देह नहीं किया जा सकता। पुनः आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि आदि प्रकीर्णकों की सैकड़ों गाथाएँ यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवतीआराधना में पायी जाती हैं, मूलाचार एवं भगवतीआराधना भी कटवीं शती से परवर्ती नहीं है। अतः इन नौ प्रकीर्णकों को तो ई.सन् की चौथी-पाँचवीं शती से परवर्ती नहीं माने जा सकता। यद्यपि वीरभद्र वरा रचित कुछ प्रकीर्णक नवीं-दसवीं शती की रचनाएँ है। इसी प्रकार चूलिकासूत्रों के अन्तर्गत नन्दी और अनुयोगवार सूत्रों में भी अनुयोगद्वार को कुछ विद्वानों ने आर्यरक्षित के समय का माना है। अतः वह ई.सन् की प्रथम शती का ग्रन्थ होना चाहिए। नन्दीसूत्र के कर्ता देववाचक देवर्धि से पूर्ववर्ती हैं अतः उनका काल भी पाँचवीं शताब्दी से परवर्ती नहीं हो सकता।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उपलब्ध आगमों में प्रक्षेपों को छोड़कर अधिकांश ग्रन्थ तो ई.पू. के हैं। यह तो एक सामान्य चर्चा हुई, अभी इन ग्रन्थों में से प्रत्येक के काल-निर्धारण के लिए स्वतन्त्र और सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि से अध्ययन की आवश्यकता बनी हुई है। आशा है जैन विद्वानों की भावी पीढी इस दिशा में कार्य करेगी। आगमों की वाचनाएँ ___ यह सत्य है कि वर्तमान में उपलब्ध श्वेताम्बर मान्य अर्धमागधी आगमों के अन्तिम स्वरूप का निर्धारण वल्लभी वाचना में वि. नि.संवत् 980 या 993 में हुआ किन्तु उसके पूर्व भी आगमों की वाचनाएँ तो होती रही हैं। जो ऐतिहासिक साक्ष्य हमें उपलब्ध हैं उनके अनुसार अर्धमागधी आगमों की पाँच वाचनाएँ होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। प्रथम वाचना -- प्रथम वाचना महावीर के निर्वाण के 160 वर्ष पश्चात् हुई। परम्परागत मान्यता तो यह है कि मध्यदेश में दादशवर्षीय भीषण अकाल के कारण कुछ मुनि काल-कवलित हो गये और कुछ समुद्र के तटवर्ती प्रदेशों की ओर चले गये। अकाल की समाप्ति पर वे मुनिगण वापस लौटे तो उन्होंने यह पाया कि उनका
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