Book Title: Arddhamagadhi Agam Sahitya Kuch Satya aur Tathya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf

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Page 4
________________ ४ भाषा-शैली आचारांग के रचनाकाल को अर्धमागधी आगम साहित्य में सबसे प्राचीन सिद्ध करती है। इस प्रकार न तो हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों की यह दृष्टि समुचित है कि अर्धमागधी आगम देवर्द्धिगणि की वाचना के समय अर्थात् ईसा की पांचवीं शताब्दी में आये और न कुछ श्वेताम्बर आचार्यों का यह कहना ही समुचित हैं कि सभी अंग आगम गणधरों की रचना है। किन्तु इतना निश्चित हैं कि कुछ प्रक्षेपों को छोड़कर अर्धमागधी आगम साहित्य शौरसेनी आगम साहित्य से प्राचीन है। शौरसेनी आगम का प्राचीनतम ग्रन्थ कसायपाहुड भी ईस्वी सन् की तीसरी शताब्दी से प्राचीन नहीं है । अत: प्राकृत आगम साहित्य में अर्धमागधी आगम ही प्राचीनतम है। 1 अर्धमागधी आगमों की विषय वस्तु सरल है अर्धमागधी आगम साहित्य की विषय वस्तु मुख्यतः उपदेशपरक, आचारपरक एवं कथापरक है। भगवती के कुछ अंश, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार, जो कि अपेक्षाकृत परवर्ती है, उनको छोड़कर उनमें प्राय: गहन दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चाओं का अभाव है। विषय प्रतिपादन सरल, सहज और सामान्य व्यक्ति के लिए भी बोधगम्य है। वह मुख्यत: विवरणात्मक एवं उपदेशात्मक है। इसके विपरीत शौरसेनी आगमों में आराधना और मूलाचार को छोड़कर लगभग सभी ग्रन्थ दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चा से युक्त हैं। वे परिपक्व दार्शनिक विचारों के परिचायक हैं। गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त की वे गहराईयाँ, जो शौरसेनी आगमों में उपलब्ध हैं, अर्धमागधी आगमों में उनका प्रायः अभाव ही है । कुन्दकुन्द के समयसार के समान सैद्धान्तिक दृष्टि से अध्यात्मवाद के प्रतिस्थापन का भी उनमें कोई प्रयास परिलक्षित नहीं होता यद्यपि ये सब उनकी कभी भी कही जा सकती हैं, किन्तु चिन्तन के विकासक्रम की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट रूप से यह फलित होता है कि अर्धमागधी आगम साहित्य प्राथमिक स्तर के होने से प्राचीन भी है और साथ ही विकसित शौरसेनी आगमों के आधारभूत भी। समवायांग में जीवस्थानों के नाम से १४ गुणस्थानों का मात्र निर्देश है, जबकि षट्खण्डागम जैसा प्राचीन शौरसेनी आगम भी उनकी गम्भीरता से चर्चा करता है। मूलाचार, भगवतीआराधना, कुन्दकुन्द के ग्रन्थ और गोम्मटसार आदि सभी में गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा है। चूंकि तत्त्वार्थ में गुणस्थानों की चर्चा एवं स्याद्वाद सप्तभंगी का अभाव है, अतः ये सभी के रचनाएँ तत्त्वार्थ के बाद की कृतियाँ मानी जा सकती हैं। इसी प्रकार कषायपाहुड, षट्खण्डागम, गोम्मटसार आदि शौरसेनी आगम ग्रन्थों में कर्म सिद्धान्त की जो गहन चर्चा है, वह भी अर्धमागधी आगम साहित्य में अनुपलब्ध है। अतः अर्धमागधी आगमों की सरल बोधगम्य एवं प्राथमिक स्तर की विवरणात्मक शैली उनकी विशेषता एवं प्राचीनता की सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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