Book Title: Apbhramsa ke Prabandh Kavya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 5
________________ ५१४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ..........-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-........................................ ४ जिनदत्त चउपइ (रल्ह) ५. सुदंसणचरिउ (नयनन्दी) ६ सुदर्शनचरित्र (माणिक्यनन्दि)-इस कथा में प्रसिद्ध सुदर्शन सेठ की कथा है । किन्तु काव्य की शैली एवं कथा का विधान बड़ा आकर्षक है । एक भावुक प्रेमी के अन्तर्द्वन्द्व का हृदयग्राही चित्रण इसमें है। ७. श्रीपाल कथा (रइधू) ८ भविसयत्तकहा (धनपाल) धनपाल की भविसयत्तकहा अपभ्रंश प्रबन्धकाव्यों में कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । यद्यपि इस कथा में श्रुतपंचमीव्रत का माहात्म्य प्रतिपादन किया गया है, किन्तु काव्य की आत्मा पूर्ण लौकिक है । धनपाल ने सम्भवतः अपभ्रंश में सर्वप्रथम लोकनायक की परम्परा का सूत्रपात किया है। साधु और असाधु प्रवृत्तिवाले दो वर्गों के व्यक्तियों का चरित्र इस प्रबन्ध में विकसित हुआ है । भविष्यदत्त की भ्रमण कथा अनेक घटनाओं को अपने में समेटे हुए है। कवि ने जिन वस्तुओं को वर्णन के लिए चुना है उनमें पूर्णता भर दी है । अलंकारों का प्रयोग सर्वत्र व्याप्त है । उपमा अलंकार की छटा द्रष्टव्य है दिक्खइ णिग्गयाउ णं कुलतियउ विणासियसीलउ । पिक्खइ तुरय वलत्थ परसई पत्थण भंगाइ व विगयासई । --भ०द०० ४.१०४ (उसने गजरहित गजशालाओं को शीलरहित कुलीन स्त्रियों की भाँति देखा तथा अश्वरहित घुड़साल उसे ऐसी दिखायी दी मानो आशारहित भग्न प्रार्थनाएं हों। कवि धाहिल स्वाभाविक वर्णन करने में प्रसिद्ध हैं । उन्होंने प्रकृति एवं मानव-स्वभाव के सजीव चित्र उपस्थित किये हैं। यशोमती की विरहवेदना हृदय को प्रभावित करने वाली है आरत्त-नयण, विच्छाय-वयण उम्मुक्क-हास, पसरंत-सास । दरमलिय-कति, कलुणं रुपन्ति उलिग्गदीण निसि सयल खीण । आहरण-विवज्जिय विगय-हार उच्चिणिय-कुसुम नं कुंद-साह । -प०स०च०१।१४।७४ (.."आभरण रहित यशोमती ऐसी कुदशाखा के समान हो गयी जिस पर से फूल बीन लिये गये हों)। अपभ्रश के इन प्रबन्धकाव्यों में न केवल प्रेम और प्रकृति के अनूठे चित्रण हैं, अपितु युद्ध की भीषणता और श्मशान की भयंकरता के भी सजीव वर्णन उपलब्ध हैं। संसार की नश्वरता के तो अनेक सन्दर्भ हैं, जो विभिन्न उपमानों से भरे हुए हैं। शरीर की नश्वरता का क्रम द्रष्टव्य है तणु लायगण वण्ण, णव जोवण्णु रुव विलास संपया । सुरघण मेह जाल जल बुब्बुय सरिसा कस्स सासया । सिसुतणु पासइ णवजोव्वणेण जोव्वण जासई बुड्ढत्तणेण । बुड्ढत्तणु पाणिणं चलियएण पाणु वि खंधोहि गलियएण । -ज०ह० च० ४.१०.१-४ अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों का शिल्प की दृष्टि से स्वतन्त्र अध्ययन अपेक्षित है। इनके सूक्ष्म अध्ययन से ज्ञात होता है कि हिन्दी के प्रेमाख्यान काव्यों का जो स्वरूप आज स्थिर हुआ है उसका बीजवपन और अंकुरोद्भव अपभ्रंश कविता में हो चुका था । अभी कुछ समय पूर्व तक जिस प्रतीक योजना को सूफी काव्यों की मौलिक उद्भावना माना जाता रहा है वह अपभ्रंश रोमांचक काव्यों की प्रतीक पद्धति की देन है। यही स्थिति हिन्दी के प्रबन्धकाव्यों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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