Book Title: Apbhramsa ka Ek Acharchit Charit kavya Author(s): Devendra Kumar Jain Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf View full book textPage 7
________________ जहि तीरिणि गणुकुलटा समाणु, जहि वसहि गाम कुक्कुड उडाण : जहि सरस कमल कमलविसलच्छि, जहि गोवासगोहण गोहण सवच्छि / उज्जाण सवणवण जहि सविक्ख, जहि खित्त सकणजल जलसहक्ख / जहि णिच्च वहेइ चउत्थु कालु, तहु देसहु वण्णणु को सुसालु / (5,1) रचना प्रासादिक और सालंकारिक है / भाषाकी दृष्टिसे रचनामें क्रियापदोंकी तथा कृदन्तोंकी प्रचुरता है, जो हिन्दी भाषायुगीन प्रवृत्तिकी द्योतक है / कुछ नये शब्द इस प्रकार है उल्हसित-उल्लसित (9,12) टालणु-कम्पित होना, अपने स्थानसे हटना (9,10) उज्जालणु-उजाला करना, प्रकाशित करना (9,10) संडु (षण्ड, सं०)-समूह (9,9) दसमउ कमलसंडु कर दल उज्जलु / (9,9) कुच्छिउ-कुत्सित (9,3) छिक (?) संघरहि छिक जं भाइएण / (9,3) तहि-तहीं, वहीं (9,4) कोइ ण राउ रंकु तहि दीसइ (9,4) सिय चंदकति सुन्दर मुहेण, उज्जल चामीयर कुचुएण / (9,2) गिरिवरसुन्दर मणहर घणेहि, कंदलविलास वाहुल्लएहि / (9,2) खड (षड्, सं०)-छह (8,26) तप्पर-तत्पर (8,24) मणुयतिरिय जिणसेवण-तप्पर / (8,24) इस प्रकार भाषा (बलाघात, नाद-योजना, नये शब्दोंका प्रयोग ), प्रसाद शैली तथा गीतादि संयोजना आदिकी दृष्टिसे उक्त रचना महत्त्वपूर्ण है। इस अध्ययनसे यह भी स्पष्ट होता है कि छठी शताब्दी तक अनवच्छिन्न रूपसे अपभ्रशके प्रबन्धकाव्योंकी परम्परा प्रचलित रही है, जिसमें काव्यात्मक विधाके रूपोंमें कथाकाव्य और चरितकाव्य जैसी स्वतन्त्र विधाएं भी जनविश्रुत रही हैं। अभी तक सांस्कृतिक दृष्टिसे भी इस प्रकारकी रचनाओंका अध्ययन नहीं किया गया है। अतः इस ओर भी विद्वानोंका ध्यान जाना चाहिए। 166 : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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