Book Title: Apbhramsa Sahitya me Krushnakavya
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 3
________________ अपभ्रंश साहित्य में कृष्णकाव्य ४८८ ................................................................ . . .... जहाँ कृष्ण वासुदेव और बलराम की कथा स्वतन्त्र रूप से प्राप्त है वहाँ भी वह एकाधिक कथाओं के संलग्न तो रहती थी ही। जैन कृष्णकथा नियम से ही अल्पाधिक मात्रा में अन्य तीन-चार विभिन्न कथासूत्रों के साथ गुम्फित रहती थी। एक कथासूत्र होता था कृष्णपिता वसुदेव के परिभ्रमण की कथा; दूसरा, बाईसवें तीर्थकर अरिष्टनेमि का चरित्र, तीसरा कथासूत्र होता था पाण्डवों का चरित्र । इनके अतिरिक्त मुख्य-मुख्य पात्रों के भवान्तरों की कथाएँ भी दी जाती थीं। वसुदेव ने एक सौ बरस तक विविध देशों में परिभ्रमण कर के अनेकानेक मानव और विद्याधर-कन्याएँ प्राप्त की थीं-उसकी रसिक कथा 'वसुदेवहण्डिी' के नाम से जैन परम्परा में प्रचलित थी। वास्तव में वह गुणाढ्य की लुप्त 'बृहत्कथा' का ही जैन-रूपान्तर था । कृष्णकथा के प्रारम्भ में वसुदेव का वंशवर्णन और चरित्र आता है । वहीं पर वसुदेव की परिभ्रमणकथा भी छोटे-मोटे रूप में दी जाती थी। अरिष्टनेमि कृष्ण वासुदेव के चचेरे भाई थे। बाईसवें तीर्थंकर होने से उनका चरित्र जैनमियों के लिए सर्वाधिक महत्त्व रखता है। अत: अनेक बार कृष्णचरित्र नेमिचरित्र के एकदेश के रूप में मिलता है। इनके अलावा पाण्डवों के साथ एवं पाण्डव-कौरव युद्ध के साथ कृष्ण का घनिष्ठ सम्बन्ध होने से कृष्ण के उत्तरचरित्र के साथ महाभारत की कथा भी ग्रथित होती थी। फलस्वरूप ऐसी रचनाओं का 'जैन महाभारत' ऐसा भी एक नाम प्रचलित था। इस प्रकार सामान्यत: जिस अंश को प्राधान्य दिया गया हो उसके अनुसार कृष्णचरित्र विषयक रचनाओं को 'अरिष्टनेमिचरित्र' (या नेमिपुराण), 'हरिवंश', 'पाण्डवपुराण', 'जैन महाभारत' आदि नाम दिये जाते थे। किन्तु इस विषय में सर्वत्र एकवाक्यता नहीं है। अमुक विशिष्ट अंश को समान प्राधान्य देने वाली कृतियों के भिन्नभिन्न नाम भी मिलते हैं। जैसे कि आरम्भ में सूचित किया था, जैन पुराणकथाओं का स्वरूप पर्याप्त मात्रा में रूढिबद्ध एवं परम्परानियत था। दूसरी ओर अपभ्रंश कृतियों में भी विषय, वस्तु आदि में संस्कृत प्राकृत की पूर्वप्रचलित रचनाओं का अनुसरण होता था। इसलिए यहाँ पर अपभ्रंश कृष्णकाव्य का विवरण एवं आलोचना प्रस्तुत करने के पहले जैन परम्परा से मान्य कृष्णकथा की एक सर्वसाधारण रूपरेखा प्रस्तुत करना आवश्यक होगा। इससे उत्तरवर्ती आलोचना आदि के लिए आवश्यक सन्दर्भ सुलभ हो जायेगा। नीचे दो गयी रूपरेखा सन् ७८४ में रचित दिगम्बराचार्य जिनसेन के संस्कृत 'हरिवंशपुराण' के मुख्यतः ३३, ३४, ३५, ३६, ४० और ४६ इन सर्गों पर आधारित है। श्वेताम्बरचार्य हेमचन्द्र के सन् ११६५ के करीब रचे हुए संस्कृत 'त्रिषष्टिशलाका-पुरुषचरित्र, के आठवें पर्व में भी सविस्तार कृष्णचरित्र है। जिनसेन के वृत्तान्त से हेमचन्द्र का वृतान्त कुछ भेद रखता है। कुछ महत्त्व की विभिन्नताएँ पाद-टिप्पणियों में सूचित की गयी है । ('हरिवंशपुराण' का संकेत-हपु. और 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' का संकेत 'त्रिषष्टि०' रखा है।) कृष्णचरित्र अत्यन्त विस्तृत होने से यहाँ पर उसकी सर्वागीण समालोचना करना सम्भव नहीं है । जैन कृष्णचरित्र के स्पष्ट रूप से दो भाग किये जा सकते हैं । कृष्ण और यादवों के द्वारावती प्रवेश तक एक भाग और शेष चरित्र का दूसरा भाग। पूर्वभाग में कृष्ण जितने केन्द्रवर्ती है उतने उत्तरभाग में नहीं है। इसलिए निम्न रूपरेखा पूर्वकृष्णचरित्र तक सीमित की गयी है। जैन कृष्णकथा की रूपरेखा हरिवंश में, जो कि हरिराजा से शुरू हुआ था, कालक्रम से मथुरा में यदु नामक राजा हुआ। उसके नाम से उसके वंशज यादव कहलाए। यदु का पुत्र नरपति हुआ और नरपति के पुत्र शूर और सुवीर । सुवीर को मथुरा का राज्य देकर शूर ने कुशद्य देश में शौर्यपुर बताया । शूर के अन्धकवृष्णि आदि पुत्र हुए और सुवीर के भोजकवृष्णि आदि । अन्धकवृष्णि के दश पुत्र हुए उनमें सबसे बड़ा समुद्रविजय और सबसे छोटा वसुदेव था। ये सब दशाह नाम से ख्यात हुए । कुन्ती और माद्री ये दो अन्धकवृष्णि की पुत्रियाँ थीं। भोजकवृष्णि के उग्रसेन आदि पुत्र थे। कम से शौर्यपुर के सिंहासन पर समुद्रविजय और मथुरा के सिंहासन पर उग्रसेन आरूढ़ हुए । अतिशय सौन्दर्य युक्त वसुदेव से मन्त्रमुग्ध होकर नगर की स्त्रियाँ अपने घरबार की उपेक्षा करने लगीं। नागरिकों की शिकायत से समुद्रविजय ने युक्तिपूर्वक वसुदेव के घर से बाहर निकलने पर नियन्त्रण लगा दिया । वसुदेव को एक दिन आकस्मात् इसका पता लग गया। उसने प्रच्छन्न रूप से नगर छोड़ दिया। जाते-जाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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