Book Title: Apbhramsa Sahitya Parampara Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 3
________________ ४८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .... . .................................................................. सम्पादित 'केटलाग आव् मैन्युस्क्रिप्ट्स इन जैसलमेर भाण्डाराज' गायकवाड़ ओ० सी०, बड़ौदा (१९२३ ई०), 'रायबहादुर हीरालाल-केटलाग आव् संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द सी० पी० एण्ड बरार, नागपुर, १६३६ ई० आदि उल्लेखनीय हैं । आधुनिकतम खोजों के आधार पर इस दिशा में कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ-सूचियों का निर्माण हुआ, जिनमें एच० डी० वेलणकर का 'केटलाग आव् प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट्स, जिल्द ३-४, बम्बई (१९३० ई.) तथा 'जिनरत्नकोश', पूना (१९४४ ई०), हीरालाल रसिकदास कापड़िया का 'डिस्क्रिप्टिव केटलाग आव् मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द गवर्नमेन्ट मैन्युस्क्रिप्ट्स लाइब्रेरी, भण्डारकर ओ० रि० ई०, पूना' (१९५४ ई०), डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल का 'राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ-सूची, भा० १-५' तथा मुनि जिनविजयजी के 'ए केटलाग आव संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द राजस्थान ओ० रि० इं०, जोधपुर कलेक्शन' एवं मुनि पुण्यविजयजी के पाटन के जैन भण्डारों की ग्रन्थ-सूचियाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । अपभ्रंश के जैन ग्रन्थों की प्रकाशित एवं अप्रकाशित हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची के लिए लेखक की भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित पुस्तक 'अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ पठनीय है, जिसमें अपभ्रंश से सम्बन्धित सभी प्रकार का विवरण दिया गया है। वास्तव में जर्मन विद्वान् वाल्टर शुबिंग ने सर्वप्रथम जन हस्तलिखित ग्रन्थों की बृहत् सूची तैयार की थी जो १९४४ ई० में लिपजिग से प्रकाशित हुई और जिसमें ११२७ जैन हस्तलिखित ग्रन्थों का पूर्ण विवरण पाया जाता है। यह सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य माना जाता है। इस प्रकार के कार्यों से ही शोध व अनुसन्धान की दिशाएँ विभिन्न रूपों को ग्रहण कर सकीं। आधुनिक युग में प्राकृत तथा अपभ्रंश विषयक शोध-कार्य मुख्य रूप से तीन धाराओं में प्रवाहित रहा है(१) साहित्यिक अध्ययन (२) सांस्कृतिक अध्ययन और (३) भाषावैज्ञानिक अध्ययन । साहित्यिक अध्ययन के अन्तर्गत जैन आगम-साहित्य का अध्ययन प्रमुख है। यह एक असन्दिग्ध तथ्य है कि आधुनिक युग में जैनागमों का भलीभांति अध्ययन कर उनको प्रकाश में लाने का श्रेय जरमन विद्वानों को है । यद्यपि संस्कृत के कतिपय जैन ग्रन्थों का अध्ययन उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में होने लगा था, किन्तु प्राकृत में तथा अपभ्रंश साहित्य का सांगोपांग अध्ययन डॉ.हर्मन जेकोबी से आरम्भ होता है । डा० जेकोबी ने कई प्राकृत जैन ग्रन्थों का सम्पादन कर उन पर महत्वपूर्ण टिप्पण लिखे। उन्होंने सर्वप्रथम श्वेताम्बर जैनागम-ग्रन्थ "भवगतीसूत्र" का सम्पादन कर १८६८ ई० में प्रकाशित किया ।' तदुपरान्त "कल्पसूत्र" (१८७६ ई०), "आचारांगसूत्र” (१८८५ ई०), "उत्तराध्ययनसूत्र” (१८८६ ई०) आदि ग्रन्थों पर शोध-कार्य कर सम्पादित किया। इसी समय साहित्यिक ग्रन्थों में जैन कथाओं की ओर डॉ० जेकोबी का ध्यान गया । सन् १८८१ ई० में “उपमितिभवप्रपंचकथा" का संस्करण प्रकाशित हुआ। इसके पूर्व “कथासंग्रह' १८८६ ई० में प्रकाशित हो चुका था । "पउमचरियं", "णेमिणाहचरिउ". और "सणयकुमारचरिउ" क्रमशः १६१४, १९२१, २१ में प्रकाशित हुए । इसी अध्ययन की शृंखला में अपभ्रंश का प्रमुख कथाकाव्य "भविसयत्तकहा" का प्रकाशन सन् १९१८ में प्रथम बार मचन (जर्मनी) से हुआ। इस प्रकार जरमन विद्वानों के अथक प्रयत्न, परिश्रम तथा लगातार शोधकार्यों में संलग्न रहने के परिमामस्वरूप ही जैन विद्याओं में शोध व अनुसन्धान के नए आयाम उत्मुक्त हो सके हैं। आल्सडोर्फ ने "कुमारपालप्रतिबोध" (१९२८ ई०), हरिवंशपुराण (महापुराण के अन्तर्गत), (१६३६ ई०), उत्तराध्ययनसूत्र, मूलाचार, भगवती आराधना (१९८०) आदि ग्रन्थों का सुसम्पादन कर प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य पर महान कार्य किया। वाल्टर शुब्रिग ने 'दसवेयालियसुत्त-दशवकालिकसूत्र" का एक सुन्दर संस्करण तथा अंग्रेजी अनुवाद तैयार किया जो १६३२ में अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ। उनके द्वारा ही सम्पादित “इसिभासिय" भा० २(१६४३ ई०) प्रकाशित हुआ। शुब्रिग और केत्लट के सम्पादन में तीन छेदसूत्र “आयारदसाओ, ववहार और निसीह" १६६६ ई० में हेम्बर्ग से प्रकाशित हुए। इसी प्रकार जे. एफ. कोल का "सूर्य प्रज्ञप्ति" (१६३७ ई०), डब्लू, किफेल का "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" (१६३७ ई०), हम्म का ' गीयत्थबिहार" (महानिशीथ का छठा अध्ययन) (१९४८ ई.), क्लास का "चउप्पनमहापुरिस चरियं” (१९५५ ई०।, नार्मन का ' स्थानांगसूत्र"२ (१९५६), आल्सडोर्फ का “इत्थिपरिना” (१९५८ ई०) ए० ऊनो १. एफ. विएसिंगर : जरमन इण्डालाजी-पास्ट एण्ड प्रिजेन्ट, बम्बई, १९६६, पृ० २१ २. संस्कृत एण्ड एलाइड एण्डोलाजिकल स्टडीज इन यूरोप, १९५६, पृ० ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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