Book Title: Apbhramsa Kavyatrayi
Author(s): Jinduttsuri, Lalchandra B Gandhi
Publisher: Oriental Research Institute Vadodra

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Page 243
________________ ११२ अन्निहि विगुणिहि संपुन्नतणु दीणदुहियउद्धरणु धर । जिणदत्तसूरि पर पल्ह भ ( ? ) णु तत्तवंतु सलहियइ घर ॥ ९ ॥ वक्खाणियइ त परमतत्तु जिण पाउ पणासइ । आराहियइ त वीरनाहु कइपल्हु पयासइ | धंमु त दयसंजुत्तु जेण वरगइ पाविज्जइ । चाउ त अणखंडियउ जु बंदिणु सलहिज्जइ । जइ ठाउ त उत्तिमु मुणिवरह वि [पवरवसहिहो चउर नर । तिम सुगुरुसिरोमणि सूरिवर खरतर सिरिजिणदत्त वर ॥ १० ॥]* इति श्रीपावलीषट्पदानि । संवत् ११७० वर्षे अश्वयुगाद्यपक्षे ११ तिथौ श्रीमद्धारानगर्यो श्रीखरतरगच्छे विधिमार्गप्रका शिवसतिवासिश्रीजिणदत्तसूरीणां शिष्येण जिनरक्षितसाधुना लिखितानि । Jain Education International [ * इति श्रीपट्टावली ॥ सं ११७१ वर्षे पत्तनमहानगरे श्री जयसिंहदेवविजयिराज्ये | श्रीखरतरगच्छे । योगीन्द्र - - युगप्रधान वसतिवा सिश्रीजिनदत्तसूरीणां शिष्येण ब्रह्म चंद्रगणिन लेखिता ॥ - जे. भा. प्रतिपाठः ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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