Book Title: Aparigraha Anasakti Yog
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 2
________________ कुछ लोग परिग्रह की मर्यादा तो ले लेते हैं, पर उसमें छूट बहुत रख लेते हैं। ऐसा करने से व्रत का प्राशय सिद्ध नहीं होता है। सचमुच देखा जाए तो यह व्रत परिग्रह को घटाने के लिए है। हमारे पास जितना हो, उसमें से भी धीरे-धीरे कम करते जाना चाहिए। परिग्रह कम करते जाने पर ही परिग्रह परिमाण व्रत तेजस्वी बन सकता है। मानव समाज को सुखी बनाने के लिए और विविध संघर्षणों से मुक्त करने के लिए इस व्रत की नितान्त आवश्यकता है। अपरिग्रह के अतिचार : "क्षेत्र-वस्तु-हिरण्य-सुवर्ण धन-धान्य-दासीदास, कुप्यप्रमाणातिक्रमाः" इस व्रत के पाँच अतिचार हैं। खेत, घर, धन-धान्य, दास-दासी, सोना-चांदी आदि की बंधी हुई मर्यादा का उल्लंघन करना, इस व्रत के अतिचार है। इन अतिचारों से बचते हए क्रमशः परिग्रह को कम करते जाना ही प्रात्म-शान्ति को पाने का और विकास करने का राजमार्ग है। बारह व्रतों में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पाँच व्रत मूल व्रत हैं। धर्मरूपी वृक्ष के ये मूल हैं? सामायिक, पौषध, तप आदि नियमों को उत्तर व्रत के रूप में माना गया है। धर्मरूपी वृक्ष के ये पत्ते हैं। मूल व्रतों के साथ ही इनका पालन करना लाभदायी होता है। उनके अभाव में इनका पालन करना, मूल को छोड़कर पत्तों को पानी पिलाने का प्रयत्न करने जैसा है। अतः मनुष्य को मूल व्रतों की तरफ पहले ध्यान देना चाहिए। ___ अपरिग्रह के महान् संदेशवाहक श्रमण भगवान महावीर ने सहज-भाव से उपयोग में आनेवाले वस्त्र आदि कुछ स्थूल पदार्थों को परिग्रह नहीं बतलाया है। वास्तविक परिग्रह तो उन्होंने किसी भी पदार्थ पर मुर्छा का-आसक्ति का रखना बतलाया है---"मुच्छा परिगहो।" पूर्ण-संयमी को धन-धान्य और नौकर-चाकर आदि सभी प्रकार के परिग्रहों का त्याग करना होता है। समस्त पाप-कर्मों का परित्याग करके सर्वथा निर्ममत्व होना, तो और भी कठिन बात है। परिग्रह-विरक्त मुनि जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण आदि वस्तुएँ रखते हैं, वे सब एकमात्र संयम की रक्षा के लिए ही रखते हैं--काम में लाते हैं। इनके रखने में किसी प्रकार की प्रासक्ति का भाव नहीं है। ज्ञानी पुरुष, संयम-साधक उपकरणों के लेने और रखने में कहीं भी किसी प्रकार का ममत्व नहीं करते। और तो क्या, अपने शरीर तक पर भी ममता नहीं रखते। सच्चे अर्थ में अपरिग्रह की यही बहुत बड़ी मर्यादा है। अपरिग्रह के संदर्भ में यह बात खास ध्यान देने योग्य है। दर्शन-शास्त्र के प्राचार्यों से पूछा कि परिग्रह क्या है ? तो उन्होंने बताया----"मूर्छा परिग्रहः" मन की ममता, आसक्ति ही परिग्रह है। वस्तु का त्याग अपरिग्रह नहीं हो सकता, मोह या आसक्ति का त्याग ही अपरिग्रह है। प्रश्न हो सकता है कि वस्तु का छोड़ना क्या है ? आप कहते हैं, मैंने कपड़े का त्याग कर दिया, धन का त्याग कर दिया, मकान का त्याग कर दिया, किन्तु मैं पूछता हूँ कि क्या वह कपड़ा आपका था? वह धन और मकान आपका था? आप चैतन्य हैं, वह वस्तु जड़ है, जड़ और चैतन्य का क्या सम्बन्ध ? गधे और घोड़े का क्या रिश्ता, क्या नातेदारी? जड़ पर चेतन का कोई अधिकार नहीं, और चेतन पर जड़ का कोई अधिकार नहीं, फिर यह त्याग किसका ? ३०८ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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