Book Title: Anuyogdwarsutra aur Vaidik Vyakhyan Paddhati ki Tulna
Author(s): Kanji Patel
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 1
________________ अनुयोगद्वारसूत्र और वैदिक व्याख्यान पद्धति की तुलना कानजी भाई पटेल वेदों में विचारों की पुनरुक्ति, शब्दों की व्युत्पत्ति और पर्याय देकर समझाने के अतिरिक्त व्याख्यान का कोई अंश दिखाई नहीं देता। ब्राह्मण और उपनिषदों में किसी एक विचार पर बल देने के लिए पुनरुक्ति, शब्दों का विश्लेषण, व्युत्पत्ति और उपमा आदि अलंकारों का स्थान है। दुर्ग के कथनानुसार यास्क द्वारा दी गई व्याख्यान-पद्धति में उद्देश, निर्देश और प्रतिनिर्देश का समावेश होता है। स्वयं दुर्ग ने तत्त्व पर्याय, भेद, संख्या, संदिग्ध, उदाहरण और निर्वचन-ये सात व्याख्यान-लक्षण गिनाए हैं। पतंजलि ने बताया है कि उदाहरण, प्रतिउदाहरण, और नए-नए वचनों का उन्मेष ही व्याख्यान है। वात्स्यायन ने उद्देश, लक्षण और परीक्षा इन तीन बातों को स्वीकार किया है। इन तीन के उपरान्त 'विभाग' भी एक अंग माना गया होगा। श्रीधर ने इस त्रैविध्य का प्रतिवाद करके शास्त्र-प्रवृत्ति को उद्देश-लक्षण रूप से द्विविध बताया है । अंत में तो पदच्छेद, पदार्थोक्ति, विग्रह, वाक्य-योजना और पूर्वापर समाधान इन पाँच बातों को स्वीकार किया गया है। _वैदिक व्याख्यान पद्धति और अनुयोगद्वार सूचित व्याख्यान पद्धति में कुछ बातें समान हैं जैसे कि-ब्याख्या में निरुक्त, व्याख्या में शास्त्र का प्रयोजन, सामान्य और विशेष व्याख्या, विविध शास्त्र प्रवृत्ति, व्याख्यान के सात द्वार, भाषा, विभाषा, वार्तिक, व्याख्यायें शास्त्र का उल्लेख, उपक्रम का स्वरूप, अनुगम आदि। __ अनुयोगद्वारसूत्र में समुदयार्थ और अवयवार्थ निरूपण की जो पद्धति मिलती है वह दुर्ग ने जिसे सामान्य और विशेष प्रकार की व्याख्या कही है, उसके अनुरूप है। निरुक्त में प्रारम्भ में निरुक्त के प्रयोजन की चर्चा है; अनुयोगद्वारसूत्र में अध्ययन शब्द के निक्षेप के प्रसंग में शास्त्र का प्रयोजन वर्णित है। वेद की व्याख्या में निरुक्त का जो स्थान है वैसा ही स्थान आगमिक व्याख्या में नियुक्ति का है। वात्स्यायन उद्योतकर, और जयंत ने शास्त्र के उद्देश, लक्षण और परीक्षा इस त्रिविध प्रवृत्ति का पक्ष स्थिर किया है उसमें तत्त्व उद्देश के समकक्ष है। स्वयं दुर्ग ने उद्देश, निर्देश और प्रतिनिर्देश का उल्लेख यास्क की व्याख्या शैली के संदर्भ में किया है। दुर्ग ने सूत्र, वृत्ति, और वार्तिक ऐसे जो क्रम बनाए हैं उसकी तुलना आचार्य जिनभद्र और आचार्य संघदास भाषा ( सूत्र ) की विभाषा ( वृत्ति) और वार्तिक के साथ की जा सकती है। अनुयोग में जिस अर्थ में उपक्रम शब्द का प्रयोग हुआ है वही अर्थ दुर्ग को भी मान्य है। महाभाष्य के अनुसार उदाहरण, प्रत्युदाहरण और वाक्याध्याहार होने पर ही व्याख्यान होता है । व्याख्यान की यह परिभाषा आचार्य संघदासगणि और जिनभद्र की वार्तिक की व्याख्या जैसी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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