Book Title: Anuyogdwar Sutra me Shadavashyak ke Gun Nishpanna Nam Author(s): Hemprabhashreeji Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 3
________________ जिनवाणी 15.17 नवम्बर 2006] तीर्थंकर देवों के बाद गुरु ही आध्यात्मिक साम्राज्य के अधिपति होते हैं। सच्चे सत्गुरु स्वयं संसारसागर को तैरकर पार करने में समर्थ होते हैं तथा दूसरों को पार उतारने की क्षमता रखते हैं। वे केवल वाणी से ही नहीं वरन् जीवन से भी मूक शिक्षा प्रदान करते हैं। वे चारित्र से सम्पन्न होते हैं तथा अपनी आत्मसाधना के लिए अन्दर व बाहर से एकरूप होते हैं। अपने साधक शिष्यों को मन, वचन और तन से पूर्ण शुद्ध, पवित्र एवं उच्च बनाने के उद्देश्य से वे पूर्ण ब्रह्मचर्य एवं संयम-साधना कराते हुए उन्हें लौकिक और पारमार्थिक ज्ञान-दान प्रदान करते हैं। 84 ऐसे हितोपदेशी गुणी गुरुजनों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने हेतु उनका विनम्र हृदय से वन्दनअभिनन्दन किया जाता है। वन्दन करने का अर्थ है- मन से नमन, वचन से स्तवन और तन से अभिवादन । अर्थात् मन, वचन और काया के द्वारा गुणों के धारक गुरु के प्रति भक्ति-स्तवन- आदर-सत्कार-सम्मान - बहुमान प्रकट करना । यही वन्दना आवश्यक की साधना है। इस प्रकार सावद्य प्रवृत्तियों से विरत होकर साधना में संलग्न गुणी- पुरुषों, मूल गुणों एवं उत्तरगुणों से सम्पन्न संयमी साधकों के प्रति आदर-सत्कार बहुमान करने रूप होने से 'वन्दना आवश्यक' का 'गुणवत्प्रतिपत्ति' नाम सार्थक है। ४. स्खलित निन्दा - संयम की साधना-आराधना करते हुए प्रमादवश जो स्खलना, अतिचार या दोष सेवन हो, विशुद्ध अन्तर्भावना से उसकी निन्दा करना स्खलित निन्दा है, जो प्रतिक्रमण रूप है। 1 अपने अन्दर ही अपनी खोज को प्रतिक्रमण कहा गया है। संयम में लगे हुए दोषों / पापों को बुरा समझकर उनकी निन्दा करना, पश्चात्ताप करना और भविष्य में उन दोषों का सेवन न करने के लिए सतत जागरूक रहना ही वास्तव में प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का अर्थ है- अनात्मभाव से आत्मभाय में प्रतिक्रांत होना या लौटना । अर्थात् यदि किसी कारण विशेष से आत्मा संयम क्षेत्र से असंयम क्षेत्र में चला गया हो तो उसे पुनः संयम क्षेत्र में लौटा लाना प्रतिक्रमण है। साधक जीवन को संपुष्ट करने के लिए प्रतिक्रमण अमृत है। यह आत्म-संशुद्धि का परम साधन है। आत्मविशुद्धि के लिए यह परम आवश्यक है। 'प्रतिक्रमण आवश्यक' मूलगुणों एवं उत्तरगुणों से स्खलित होने पर लगे अतिचारों का निराकरण करने वाला होने से 'स्खलित निन्दा' कहा गया है। ५. व्रण - चिकित्सा - व्रण का अर्थ है घाव । संयम की आराधना में प्रमादवश लगने वाले अतिचार या दोष आध्यात्मिक व्रण हैं अर्थात् वे संयम रूप शरीर के घाव हैं। जिस प्रकार मरहम - दवा आदि से शारीरिक व्रण या घाव की चिकित्सा की जाती है, उसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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