Book Title: Anusandhan vishayak Mahattvapurna Prashnottara Author(s): Darbarilal Kothiya Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf View full book textPage 7
________________ है तो यह प्रश्न उठता है कि वहाँ वृत्तिकारने उसे उद्धत किया है या स्वयं रचकर उपस्थित किया है ? यदि उद्धृत किया है तो मालूम होता है कि वह अकलङ्कदेवसे भी प्राचीन है / और यदि स्वयं रचा है तो उसे उनके न्यायविनिश्चयकी स्वोपज्ञवृत्तिका समझना चाहिए / वादिराजस्रिने न्यायविनिश्चयविवरण (प० 240 पूर्वा०) में 'यथोक्तं स्याद्वावमहार्णवे' शब्दोंके उल्लेख-पूर्वक उक्त पद्य को प्रस्तुत किया है, जिससे वह स्याद्वावमहार्णव' नामक किसी जैन दार्शनिक ग्रन्थका जाना जाता है। यह ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है और इससे यह नहीं कहा जासकता कि इसके रचयिता अमुक आचार्य है। हो सकता है कि अकलङ्कदेवने भी इसी स्याद्वादमहार्णवपरसे उक्त पद्य उदाहरणके बतौर न्यायविनिश्चयकी स्वोपज्ञवृत्ति में, जो आज अनुपलब्ध है, उल्लेखिप्त किया हो और इससे प्रकट है कि यह पद्य काफी प्रसिद्ध और पुराना है / 12. शंका-आधुनिक कितने ही विद्वान् यह कहते हुए पाये जाते हैं कि प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल भट्टने अपने मीमांसा-श्लोकवात्तिककी निम्न कारिकाओंको समन्तभद्रस्वामीकी आप्तमीमांसागत 'घटमौलिसुवर्णार्थी' आदि कारिकाके आधारपर रचा है और इसलिए समन्तभद्रस्वामी कुमारिलभट्टसे बहुत पूर्ववर्ती विद्वान् हैं / क्या उनके इस कथनको पुष्ट करनेवाला कोई प्राचीन पुष्ट प्रमाण भी है ? कुमारिलकी कारिकाएँ ये हैं-- नर्द्धमानकभंगेन रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः।। हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् / 12. समाधान-उक्त विद्वानोंके कथन को पुष्ट करने वाला प्रमाण भी मिलता है / ई० सन् 1025 के प्रख्यात विद्वान् आचार्य वादिराजसूरिने अपने न्यायविनिश्चयविवरण (लि० प० 245) में एक असन्दिग्ध स्पष्ट उल्लेख किया है और जो निम्न प्रकार है "उक्तं स्वामिसमन्तभद्रेस्तदुपजीविना भट्टेनापिघटमौलिसवार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् / शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्थं जनो याति सहेतुकम् // वर्तमानकभंगेन रुचक्रः क्रियते यदा / तदा पूर्वार्थिनः शोक्त: प्रोतिश्चाप्युत्तरार्थिनः / / हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् / इति च // ' इस उल्लेखमें वादिराजने जो 'तदुपजीविना' पदका प्रयोग किया है उससे स्पष्ट है कि आजसे नौ सौ वर्ष पूर्व भी कुमारिलको समन्तभद्रस्वामोका उक्त विषयमें अनुगामी अथवा अनुसर्ता माना जाता था / जो विद्वान् समन्तभद्रस्वामीको कुमारिल और उसके समालोचक धर्म कीर्तिके उत्तरवर्ती बतलाते हैं उन्हें वादिराजका यह उल्लेख अभूतपूर्व और प्रामाणिक समाधान उपस्थित करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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