Book Title: Antaryatra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 3
________________ लोकप्रियता के आधार : प्रेम : यह तो आप जानते हैं कि मनुष्य की मूल प्रकृति शान्त रहना और प्रेमपूर्वक चलना है । मनुष्य संसार में जहाँ कहीं भी रहना चाहता है, अकेला नहीं रह सकता । उसको साथी चाहिए और साथी बनाने के लिए प्रेम जैसी चीज भी चाहिए। प्रेम से 'एक व्यक्ति दूसरे से जुड़ता है । परिवार में दस-बीस आदमी रह रहे हैं, तो प्रेम के कारण ही मिलकर रह सकते हैं । घृणा का काम तो जोड़ना नहीं, तोड़ना है, अलग करना है ! इसी तरह समाज में हजारों आदमी जुड़े रहते हैं । उन्हें जोड़ने वाला एकमात प्रेम ही है । तो परिवार में पारिवारिक प्रेम, समाज सामाजिक प्रेम और राष्ट्र में राष्ट्रिय प्रेम ही आपस में मनुष्य जाति को जोड़े हुए है । जिसके हृदय में प्रेम का वास है, वह अपने हजारों और लाखों प्रेमी बनाता चलता है । प्रेम और क्रोध : परस्पर विरोधी : मनुष्य को कर ले और प्रेम भी कर ले, यह नहीं हो सकता । ये दोनों परस्पर विरोधी हैं । जहाँ क्रोध होगा, वहाँ प्रेम नहीं हो सकता और जहाँ प्रेम है, वहाँ क्रोध का अस्तित्व नहीं । ईश्वर की भी शक्ति नहीं कि वह दिन और रात को एक सिंहासन पर ले आए। दिन और रात एकत्र नहीं रह सकते। राम और रावण दोनों एक सिहासन पर नहीं बैठ सकते । एक बैठेगा, तो दूसरे को हटना पड़ेगा। राम की पूजा करनी है, तो रावण को सिंहासन से उतारना ही पड़ेगा और यदि रावण को पूजना है, तो राम को उतारना पड़ेगा । मन का भयानक कालुष्य : क्रोध : जब इन्सान के मन में मलिनता आती है, तो चमकती हुई ज्ञान की लौ धुंधली पड़ जाती है । और, जब मन में काम और क्रोध की लहर उठती है, तो मन का दर्पण मैला पड़ जाता है। आपको अनुभव ही होगा कि दर्पण में फूँक मार देने पर वह धुंधला हो जाता है । उसमें चेहरा देखने पर साफ नजर नहीं आता । दर्पण अपने स्वरूप में तो स्वच्छ है, किन्तु जब मुँह की भाप ने असर किया, तो वह मैला बन गया। इसी प्रकार मन का दर्पण भी साफ है, ठीक हालत में है और वह प्रतिबिम्ब को ग्रहण कर सकता है, किन्तु दुर्भाग्य से क्रोध की फूँक लगती है, तो वह इतना मैला हो जाता है कि उस पर ठीक-ठीक प्रतिबिम्ब झलक नहीं पाता । जिनके मन का दर्पण साफ नहीं है, वे मित्र को मित्र के रूप में ग्रहण नहीं कर पाते, पति को पति के रूप में, पत्नी को पत्नी के रूप में और पिता-पुत्र को, पिता-पुत्र के रूप में नहीं देख पाते। उनके मन पर पड़ने वाले प्रतिबिम्ब जब इतने धुंधले होते हैं, तो वे अपने कर्तव्य को भी साफ-साफ नहीं देख पाते और न अपनी भूलों को ही देख पाते हैं । क्रोध : एक भयानक विघातक : क्रोध में पागलपन ही नहीं, पागलपन से भी कुछ अधिक ही होता है। जिसे दुनिया पागल समझती है, वह पागलपन उतना भयानक नहीं होता, जितना क्रोध के वशीभूत हुआ मनुष्य भयानक होता है । अन्तर में क्रोध की आग सुलगते ही विवेक-बुद्धि भस्म हो जाती है और उस दशा में मनुष्य जो न कर बैठे, वह गनीमत है ! वह आत्मघात भी कर लेता है, पर का घात भी कर देता है और ऐसे-ऐसे काम भी कर डालता है कि जिनके लिए उसे जिन्दगी भर पछताना पड़ता है । क्रोध के प्रवेश में मनुष्य अपने सारे होश - हवास खो बैठता है । क्रोध पर ही क्रोध : अतः हमें यह निर्णय कर लेना है कि क्रोध हमारे जीवन के लिए सब प्रकार से घातक' है, उसको अपने मन में कतई स्थान नहीं देना है। जब क्रोध आने को हो, तो उसको बाहर दरवाजे से ही धक्का देकर निकाल देना चाहिए। हाँ, यदि क्रोध करना ही है तो, हमें क्रोध पर ही क्रोध करना है । हमारे यहाँ यह सिद्धान्त प्राया है कि - "यदि क्रोध करना है, तो अन्तर्यात्रा Jain Education International For Private & Personal Use Only ३५१ www.jainelibrary.org.

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