Book Title: Antarman ki Granthiya Khole Author(s): Nanesh Acharya Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 4
________________ १३० ] [ कर्म सिद्धान्त सच्चे अर्थ में योग्य द्रष्टा बन जाय तो उसकी शक्ति नियंत्रित भी हो जायेगी और एकरूप भी बन जावेगी। तब उसकी प्रभाविकता एवं उपयोगिता अपरिमित हो जायगी । अनियंत्रित मन भटकाव में हजार जगहों पर उलझता है तो हजार तरह को गांठे बांध लेता है। यदि दृष्टि समर्थ बन जाय तो मन का नियन्त्रण भी सहज हो जायेगा क्योंकि समता के समागम से समर्थ दृष्टि द्रष्टा को भी योग्य बना देगी । वह द्रष्टा तब जड़ तत्त्वों की अधीनता छोड़ देगा। और स्वयं उनका भी और निजका भी कुशल नियंत्रक बन जायगा। मानव मन बदला तो समझिये कि व्यक्ति-व्यक्ति में यह क्षुभ परिवर्तन चल निकलेगा जो समाज, राष्ट्र एवं विश्व तक की परिस्थितियों को समता के ढांचे में ढालकर सबके लिये उन्हें सुखकर एवं हितकर बना देगा । केवल एकसूत्री कार्यक्रम-समता दर्शन : इस प्रकार के सुखद परिवर्तन की दशा में जो बाह्य समस्याएँ पहले जटिल दिखाई दे रही थीं, वे आसान हो जायेंगी। जो विकृत दृष्टि पहले अपने स्वार्थ ही देखती थी, वह सम बन कर अपने आत्म स्वरूप को देखेगी तो बाहर परहित को ही प्रमुखता देगी। ज्यों-ज्यों हृदय की गहराइयों में समता का उत्कर्ष बढ़ता जायगा, लोकोपकार के लिये अपने सर्वस्व तक की बलि. कर देने में भी कोई हिचक नहीं होगी। समता-दर्शन के केवल एक-सूत्री कार्यक्रम के आधार पर न सिर्फ व्यक्ति के अन्तर्मन और जीवन में जागृति की ज्योति फैलेगी बल्कि सामाजिक, राष्ट्रीय एवं विश्वजनीन जीवन में भी क्रान्तिकारी सुखद परिवर्तन लाये जा सकेंगे। 'चेतन पर जड़ को हावी न होने दें'-यह मूल मंत्र है, फिर मोह का कोई व्यवधान नहीं रहेगा। समता दर्शन का प्रकाश सभी प्रकार के अंधकार को नष्ट कर देगा। __ जीवन में समता के विकास की आधारशिला बनाइये । श्रेष्ठ संस्कारों को-जो इतने प्रगाढ़ हों कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पल्लवित-पुष्पित होते हुए इस तरह श्री वृद्धि करते जांय कि सांसारिक जीवन का क्रम ही अबाध रूप से समतामय बन जाय । ऐसी सभ्यता और संस्कृति का वातावरण छा जाय जो मानव-जाति ही नहीं समस्त प्राणी समाज के साथ सहानुभूति एवं सहयोग की सक्रियता को स्थायी बनादे । विश्व-दर्शन तभी सार्थक है जब योग्य द्रष्टा अपनी समर्थ दृष्टि के माध्यम से सम्पूर्ण दृश्य को समतामय बना सके। यथावत् स्वरूप दर्शन से ही समता का स्वरूप प्रतिभासित हो सकेगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5