Book Title: Anirvachaniya Anand ka Srot Swanubhuti Author(s): Amrendravijay Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 5
________________ अनिवर्चनीय आनन्द का स्रोत : स्वानुभूति : मुनिश्री अमरेन्द्रविजय जी (१) अनुभव करने वाले व्यक्ति की अनुभव की घटना से पहले की मानसिक रचना । (२) उसके आस-पास की परिस्थिति-देशकाल । (३) अपने अनुभव की बात वह जिनके समक्ष व्यक्त कर रहा हो, उस जन-समूह की मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक भूमिका। (४) उस व्यक्ति की स्वयं की अभिव्यक्ति की क्षमता (expression power)। इन सबकी--चारों की छाप, इस वर्णन में आये बिना नहीं रहती। अतः मन द्वारा वाणी में अनुभव का जो चित्र अंकित किया जाता है, वह कोई रम्य नैसर्गिक दृश्य का मात्र दो-चार रेखाओं से अंकित 'स्केच' जैसा भी मुश्किल से ही हो सकता है । जिन्होंने इस दशा का अनुभव किया है, वे सभी यही कहते हैं कि उसे वे वाणी द्वारा व्यक्त करने में स्वयं असमर्थ हैं । अतः इस अपरोक्षानुभव को पूर्ण रूप से समझने के लिए उसका स्वयं अनुभव लेना ही आवश्यक है, शब्द तो इसका संकेत मात्र ही कर सकते हैं। फिर भी, जैसे अंगुली से वृक्ष की डाली की ओर संकेत कर दूज का चन्द्रमा बताया जाता है, उसी प्रकार, शब्द का संकेत करके आत्मानुभव की ओर श्रोताओं की दृष्टि ले जाने का प्रयास होता रहता है। बहधा ऐसे संकेत सूत्रात्मक शैली से पद्य में- काव्य में हुए हैं। अभिव्यक्ति से परे की इन अनुभूतियों को गणित के समीकरण या भौतिक विज्ञान के नियमों की तरह स्पष्ट शब्दों के दायरे में बाँधा नहीं जा सकता, काव्य का प्रवाही माध्यम ही, आध्यात्मिक अनुभूति ही अभिव्यक्ति के लिए अधिक रहता है । अतः साधकों तथा अनुभवियों ने भजनों एवं पदों में, ऐसे ही अन्य काव्य-प्रकारों में अपनी अनुभूति के कुछ संकेत दिये हैं। कई महान कवियों ने भी अपनी उत्तम काव्यकृतियों में इस अनुभूति के संकेत दिये हैं। फिर भी, काव्यमय भाषा में अक्षरांकित इन त्रुटक संकेतों में से अनुभव की मूल काया का पूर्ण चित्र उपस्थित करना कठिन होता है । अतः पद्यों में दिये हुए इन संकेतों से सामान्य जन अनुभव के समय की-साधक की आन्तरिक स्थिति का स्पष्ट बोध प्राप्त नहीं कर पाता। अनुभव क्या है, इसकी कुछ स्पष्ट कल्पना जिज्ञासु पाठक कर सके, इसके लिए अनुभव-प्राप्त दो-तीन महानुभावों के उद्गार उन्हीं के गद्य-शब्दों में यहाँ दिये जा रहे हैं । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ये महानुभाव पिछले सौ वर्षों में हमारे बीच रहे हुए व्यक्तियों में से हैं। योगियों के अनुभव-कथन में संभव है कि बुद्धिवादी पाठकों को मात्र अतिशयोक्ति या उमिलता का आवेग ही दिखाई दे, इसलिए पहले एक बुद्धिजीवी-अमेरिकन डाक्टर का अनुभव, उसके स्वयं के ही शब्दों में आपके सामने प्रस्तुत है। 'अमेरिकन मैडिको साइकॉलॉजिक ऐसोसियेशन' के तथा 'ब्रिटिश मेडिकल ऐसोसियेशन' के साइकॉलॉजिकल विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष डा० रिचार्ड मोरिस बक, एम० डी० स्वयं का अनुभव बताते हुए लिखते हैं "अकस्मात् बिना किसी पूर्व सूचना के अग्नि की लपटों-जैसे रंग के बादलों से उसने अपने आपको घिरे हुए देखा-उसके मन में एक क्षण के लिए विचार चमक गया आग का-बड़े शहर में अचानक प्रगटे हुए किसी दावानल का। दूसरे ही क्षण, उसे लगा कि प्रकाश तो उसके अन्दर ही था। १. इस आलेखन में डा० बक ने स्वयं का उल्लेख अन्य पुरुष के सर्वनाम से किया है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस समय वे व्यक्तित्व भावना से कितने ऊपर उठे हुए थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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