Book Title: Angvijja aur Namaskar Mantra ki Vikas Yatra Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf View full book textPage 6
________________ ३५ पद के साथ 'सव्व' (सर्व) विशेषण का प्रयोग नहीं हैं। इसी प्रकार की दूसरी समस्या 'साहू' पद के विशेषणों को लेकर भी है। वर्तमान में "साहू' पद वे साथ 'लोए' और 'सव्व' इन दो विशेषणों का प्रयोग उपलब्ध होता है। वर्तमान में "नमो. लोए सव्वसाहणं' पाठ उपलब्ध है किन्तु अंगविज्जा में 'नमो सव्वसाहणं' और 'नमो लोए सव्वसाहूणे' ये दोनों पाठ उपलब्ध हैं। जहाँ प्रतिहार विद्या और स्तरविद्या सम्बन्धी मन्त्र में 'नमो सव्वसाहूणं' पाठ है, वहीं अंगविद्या, भूमिकर्मविद्या एवं सिद्धविद्या में 'नमो सव्वसाणं-ऐसा पाठ मिलता है। भगवतीसूत्र की कुछ प्राचीन हस्त-प्रतियों में भी 'लोए' विशेषण उपलब्ध नहीं होता है-ऐसी सूचना उपलब्ध है. यद्यपि इसका प्रमाण मुझे अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। किन्तु तेरापंथ समाज में 'लोए' पद रखने या न रखने को लेकर एक चर्चा अवश्य प्रारम्भ हुई थी और इस सम्बन्ध में कुछ ऊहापोह भी हुआ था। किन्तु अन्त में उन्होंने 'लोए' पाठ रखा। ज्ञातव्य है कि विशेषण रहित 'नमो साहणं' पद कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। अत: नमस्कारमन्त्र के पञ्चम पद के दो रूप मिलते हैं. 'नमो सव्वसाहूणं' और 'नमो लोए सब्बसाहूणं' और ये दोनों ही रूप अंगविज्जा में उपस्थित हैं। इस सम्बन्ध में अंगविज्जा को यह विशेषता ध्यान देने योग्य है कि जहाँ त्रिपदात्मक नमस्कार मन्त्र का प्रयोग है वहाँ मात्र 'सव्व' विशेषण का प्रयोग हुआ है और जहाँ पञ्चपदात्मक नमस्कारमन्त्र का उल्लेख है वहाँ 'लोए' और 'सव्व' दोनों का प्रयोग है। जबकि 'सिद्धाणं' पद के साथ पञ्चपदात्मक नमस्कारमन्त्र में कहीं भी 'सव्व' विशेषण का प्रयोग नहीं हुआ है मात्र द्विपदात्मक अथवा त्रिपदात्मक नमस्कारमन्त्र में ही 'सिद्धाणं' पद के साथ 'सव्व' विशेषण का प्रयोग देखने में आता है। अंगविज्जा में नमस्कारमन्त्र में तो नहीं किन्तु लब्धिपदों के नमस्कार सम्बन्धी मन्त्रों में 'आयरिआणं' पद के साथ 'सव्वेसिं' विशेषण भी देखने को मिला है। वहाँ पूर्ण पद इस प्रकार है- 'णमो माहणिमित्तीणं सब्बेसिं आयरिआणं'। आवश्यक नियुक्ति में उल्लेख है--- 'आयरिअ नमुक्कारेण विज्जामंता य सिझंति"। इससे यही फलित होता है कि विद्या एवं मन्त्रों की साधना का प्रारम्भ आचार्य के प्रति नमस्कार पूर्वक होता है। इसी सन्दर्भ में णमोविज्जाचारणसिद्धाणं तवसिद्धाणं'-ऐसे दो प्रयोग भी अंगविज्जा में मिलते हैं। ज्ञातव्य है कि यहाँ 'सिद्ध' पद का अर्थ वह नहीं है जो अर्थ पञ्चपदात्मक नमस्कारमन्त्र में है। यहाँ सिद्ध का तात्पर्य चारणविद्या सिद्ध अथवा तप-सिद्ध है, न कि मुक्त-आत्मा। नमस्कारमन्त्र के प्रारम्भ में 'नमो' में दन्त्य 'न' का प्रयोग हो या मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग हो इसे लेकर विवाद की स्थिति बनी हई है। जहाँ श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में 'नमो' और 'णमो' दोनों ही रूप मिलते हैं, वहाँ दिगम्बर परम्परा में 'णमो' ऐसा एक ही प्रयोग मिलता है। अब अभिलेखीय आधारों पर विशेषरूप से खारवेल के हत्थीगुम्फा अभिलेख और मथुरा के जैन अभिलेखों के अध्ययन से सुस्पष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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