Book Title: Anekantvada
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ जितेन्द्र शाह Nirgrantha अर्थात् धर्म से ऊर्ध्वगमन, अधर्म के कारण अधोगमन, ज्ञान से मोक्ष और अज्ञान के कारण बन्ध होता है । पच्चीस तत्त्वों को जानने वाला कोई भी आश्रम में रहता हो या फिर जटाधारी हो या मुण्डन रखता हो या शिखा उससे कोई फर्क नहीं, वह निश्चित ही मोक्ष प्राप्त करता है। अन्त में आचार्यश्री ने एक और आपत्ति उठाई है कि आप उक्त आपत्ति से बचने के लिए सुखदुःखादि का भोग शरीर करता है यह मान भी लो तब भी भोग आदि भी तो एक क्रिया है वह निष्क्रिय आत्मा में कैसे सम्भवित हो सकेगी ? इन सब आपत्तिओं से बचने के लिए आप यदि आत्मा में ही क्रिया का स्वीकार कर लेंगे तब तो अन्य मत का आश्रय ही हो जाएगा। इस प्रकार आत्मतत्त्व में एकान्त नित्यत्व का स्वीकार करने पर आचारशास्त्रीय एवं धर्मशास्त्रीय समस्याओं का युक्तियुक्त समाधान शक्य नहीं है। अतः यह मानना अनुचित है कि आत्मतत्त्व एकान्त नित्य है २९८ एकान्त अनित्यवाद : १५ वे अष्टक में आचार्यश्री ने बौद्ध दर्शन सम्मत एकान्त अनित्यत्ववाद का खण्डन किया है । बौद्ध दर्शन मूलतः क्षणिकवादी दर्शन है। वह सर्व पदार्थ को क्षणिक मानता है। इस कारण आत्मा अर्थात् चेतनतत्त्व भी एक क्षणस्थायी ज्ञानों का प्रवाह मात्र ही है । पदार्थ स्वयं ही क्षणस्थायी होने के कारण अपने आप ही नष्ट होता है अतः प्रस्तुत सिद्धान्त को नाश निर्हेतुकतावाद अर्थात् एक वस्तु के उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाने का कोई कारण सम्भव नहीं है। ऐसा स्वीकार करने पर एकान्त नित्यवाद में जो दोष दिखाए गए वही दोष यहाँ भी उपस्थित होंगे और उसका तर्कपूत समाधान सम्भव नहीं है । यथा किसी भी पदार्थ का नाश अन्य पदार्थ के द्वारा सम्भव नहीं है, हिंसा का भी कोई कारण सम्भव नहीं होगा। क्षणस्थायित्व की इस अवस्था में एक विशिष्ट परिस्थिति निर्मित होगी चूंकि एक वस्तु का एक समय विशेष ऊपर उत्पन्न होना किसी कारण पर निर्भर करता है। या तो हिंसा सर्वदा उपस्थित रहेगी या हिंसा कभी भी नहीं घटेगी। और क्षणिकवादी हिंसा आदि की वास्तविकता को सिद्ध करने के लिए यह कह दे कि एक उपस्थित क्षणप्रवाह से भिन्न क्षणप्रवाह को जन्म देनेवाला व्यक्ति हिंसक कहलाता है। इसको दीक्षित ने स्पष्ट करते हुए कहा है कि जब एक शिकारी एक हरिण को मारता है और वह हरिण मरकर मनुष्यजन्म प्राप्त करता है तब वह शिकारी उस हरिण का हिंसक इसलिए है कि हरिण जीवन प्रवाह के स्थान पर मनुष्य जीवन प्रवाह को जन्म दिया" किन्तु प्रस्तुत वादी के मत में क्षणों का यह प्रवाह एक काल्पनिक वस्तु है और काल्पनिक वस्तु के जन्म का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है । इस आपत्ति से बचने के लिए यह तर्क दिया जाय कि एक क्षणविशेष को जन्म देने वाला व्यक्ति हिंसक कहलाता है । तथापि यह तर्क अकाट्य सिद्ध नहीं होगा क्योंकि यह बात क्षणविशेष के तत्काल पूर्ववर्ती क्षण पर भी लागू पड़ सकती है। किन्तु तत्काल पूर्ववर्ती क्षण किसी प्रकार हिंसक नहीं है। यदि यह कहा जाए कि एक क्षणविशेष का उपादान कारणभूत क्षण भी हिंसक होता है तब ऐसी परिस्थिति निर्मित होगी कि संसार में कोई भी अहिंसक नहीं रहेगा क्योंकि अपने तत्काल उत्तरवर्ती क्षण के उपादान कारण तो सभी क्षण हुआ करते है। इतना ही नहीं इस अवस्था के कारण सभी शास्त्रों में जोरशोर से वर्णित एवं प्रतिपादित अहिंसा ही निरर्थक हो जाएगी और उसके अभाव में सत्यादि धर्म भी निरर्थक होंगे। अतः एकान्तक्षणिक आत्मतत्त्व भी युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता। अनेकान्तवाद : आचार्य हरिभद्रजी का मानना है कि एकान्त नित्यवाद में जो दोष है वे सभी दोष एकान्त अनित्यवाद में भी समान रूप से उपस्थित होते है। दोनों सिद्धान्त में उठाई गई आपत्तिओं का कोई तर्कबद्ध समाधान संभव नहि है अतः इन सिद्धान्तों का स्वीकार करना उचित नहि है। उनका मानना है कि इन समस्याओं का समाधान केवल अनेकान्तवाद के आश्रय से ही होता है। आत्मतत्त्व कथञ्चित् नित्य और कथञ्चित् अनित्य तथा शरीर से कथञ्चित् भिन्न एवं कथञ्चित् अभिन्न मानने पर सभी दोष टल जाते है । आत्मतत्त्व को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5