Book Title: Anekantpad Vimarsh
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 3
________________ इस आशय से उन्होंने स्पष्टतया यह भी बतलाया है कि वस्तु में एकान्ततः नित्यत्व और एकान्ततः अनित्यत्व अपने अस्तित्वको क्यों नहीं रख सकते हैं ? वे कहते हैं कि 'सर्वथा नित्य पदार्थ न तो उत्पन्न हो सकता है और न नाश हो सकता है, क्योंकि उसमें क्रिया और कारकको योजना सम्भव नहीं है । इसी तरह सर्वथा अनित्य पदार्थ भी, जो अन्वयरहित होनेसे प्रायः असत् रूप ही है, न उत्पन्न हो सकता है और न नष्ट हो सकता है, क्योंकि उसमें भी क्रिया और कारककी योजना असम्भव है । इसी प्रकार सर्वथा असत्का उत्पाद और सत्का नाश भी सम्भव नहीं है, क्योंकि असत् तो अन्वय-शून्य है और सत् व्यतिरेकशून्य है और इन दोनों के बिना कार्यकारणभाव बनता नहीं । 'अन्वयव्यतिरेक- समधिगम्यो हि कार्यकारणभावः' यों सर्व सम्मत सिद्धान्त है । अतः वस्तुतत्त्व 'यह वही है' इस प्रकारकी प्रत्यभिज्ञा-प्रतीति होनेसे नित्य है और यह वह नहीं है—अन्य है' इस प्रकारका ज्ञान होनेसे अनित्य है और ये दोनों नित्यत्व तथा अनित्यत्व वस्तु विरुद्ध नहीं है, क्योंकि वह द्रव्यरूप अन्तरंग कारणको अपेक्षासे नित्य है और कालादि बहिरंग कारण तथा पर्यायरूप नैमित्तिक कार्यकी अपेक्षासे अनित्य है । यथा— न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति न च क्रियाकारकमंत्र युक्तम् । नैवाऽसतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति ||२४|| नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेर्न नित्यमन्यत् प्रतिपत्तिसिद्धेः । न तद्विरुद्ध बहिरन्तरङ्गनिमित्त- नैमित्तिक योगतस्ते ||४३|| आगे इसी ग्रन्थ में उन्होंने अरजिनके स्तवनमें और भी स्पष्टता के साथ अनेकान्तदृष्टिको सम्यक् और एकान्त दृष्टिको स्व-घातक कहा है। -- अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः । ततः सर्वं मृषोक्तं स्यात्तदयुक्तं स्वघाततः ॥१८॥ 'हे अर जिन ! आपकी अनेकान्तदृष्टि समीचीन है -- निर्दोष है, किन्तु जो एकान्तदृष्टि है वह सदोष है | अतः एकान्तदृष्टि से किया गया समस्त कथन मिथ्या है, क्योंकि एकान्तदृष्टि बिना अनेकान्तदृष्टिके प्रतिष्ठित नहीं होती और इसलिये वह अपनी ही घातक है ।' Jain Education International पर्य यह कि जिस प्रकार समुद्रके सद्भावमें ही उसकी अनन्त बिन्दुओंकी सत्ता बनती है और उसके अभाव में उन बिन्दुओं की सत्ता नहीं बनती उसी प्रकार अनेकान्तरूप वस्तुके सद्भाव में ही सर्व एकान्त दृष्टिय सिद्ध होती हैं और उसके अभाव में एक भी दृष्टि अपने अस्तित्वको नहीं रख पाती । आचार्य सिद्धसेन अपनी चौथी द्वात्रिंशिका में इसी बात को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रतिपादन करते हैं : उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टयः । न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ॥ - (४-१५) 'जिस प्रकार समस्त नदियाँ समुद्र में सम्मिलित हैं उसी तरह समस्त दृष्टियाँ अनेकान्त - समुद्र में मिली हैं । परन्तु उन एक-एक में अनेकान्तका दर्शन नहीं होता । जैसे पृथक्-पृथक् नदियों में समुद्र नहीं दिखता ।' अतः हम अपने स्वल्प ज्ञानसे अनन्तधर्मा वस्तुके एक-एक अंशको छूकर ही उसमें पूर्णताका अहंकार 'ऐसी ही है' न करें, उसमें अन्य धर्मोके सद्भावको भी स्वीकार करें। यदि हम इस तरह पक्षाग्रह छोड़कर वस्तुका दर्शन करें तो निश्चय ही हमे उसके अनेकान्तात्मक विराट् रुपका दर्शन हो सकता है । समन्तभद्र स्वामी युक्त्यनुशासन में यही कहते हैं : - १७९ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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