Book Title: Anekant vad aur Sarvodayawad
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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________________ अनेकान्तवाद और सर्वोदयवाद डॉ० भागचन्द्र जैन अनेकान्तवाद सत्य और अहिंसा की भूमिका पर प्रतिष्ठित तीर्थकर महावीर का सार्वभौमिक सिद्धान्त है जो सर्वधर्म समभाव के चिन्तन से अनुप्राणित है। उसमें लोकहित और लोकसंग्रह की भावना गभित है। धार्मिक, राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को दूर करने का अमोघ अस्त्र है । समन्वयवादिता के आधार पर सर्वथा एकान्तवादियों को एक प्लेट-फार्म पर ससम्मान बैठाने का उपक्रम है। दूसरे के दृष्टिकोण का अनादर करना और उसके अस्तित्व को अस्वीकार करना ही संघर्ष का मूल कारण होता है। संसार में जितने भी युद्ध हुए हैं उनके पीछे यही कारण रहा है । अतः संघर्ष को दूर करने का उपाय यही है कि हम प्रत्येक व्यक्ति और राष्ट्र के विचारों पर उदारता और निष्पक्षता पूर्वक विचार करें। उससे हमारा दृष्टिकोण दुराग्रही अथवा एकांगी नहीं होगा। सर्वोदयवाद आधुनिक काल में गांधीयुग का प्रदेय माना जाता है। गांधी जी ने रश्किन की पुस्तक "अन टू दी लास्ट" का अनुवाद “सर्वोदयवाद" शीर्षक से किया और तभी से उसकी लोकप्रियता में बाढ़ आयी। यहां सर्वोदयवाद का तात्पर्य है—प्रत्येक व्यक्ति को लौकिक जीवन के विकास के लिए समान अवसर प्रदान किया जाना। इसमें पुरुषार्थ का महत्त्व तथा सभी के साथ स्वयं के उत्कर्ष का संबंध भी जुड़ा हुआ है। गांधी जी के इस सिद्धान्त को विनोबा जी ने कुछ और विशिष्ट प्रक्रिया देकर कार्य क्षेत्र में उतार दिया। सर्वोदयवाद वस्तुतः आधुनिक चेतना की देन नहीं। उसे यथार्थ में महावीर ने प्रस्तुत किया था। उन्होंने सामाजिक क्षेत्र की विषमता को देखकर क्रान्ति के तीन सूत्र दिये---१. समता २. शमता और ३. श्रमता । समता का तात्पर्य है सभी व्यक्ति समान हैं । जन्म से न तो कोई ब्राह्मण है, न क्षत्रिय, न वैश्य है, न शूद्र है । मनुष्य तो जाति नामकर्म के उदय से एक ही है। आजीविका और कर्म के भेद से अवश्य उसे चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है : मनुस्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिताद् भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥—जिनसेनाचार्य, आदिपुराण शमता कर्मों के समूल विनाश से सम्बद्ध है। इस अवस्था को निर्वाण कहा जाता है और श्रमता से मतलब है व्यक्ति का विकास उसके स्वयं के पुरुषार्थ पर निर्भर करता है, ईश्वर आदि की कृपा पर नहीं । ये तीनों सूत्र व्यक्ति के उत्थान के मूल सम्बल हैं। इनका मूल्यांकन करते हुए ही अनेकान्तवाद-स्याद्वाद के प्रतिष्ठापक आचार्य समन्तभद्र ने तीर्थकर महावीर की स्तुति करते हुए युक्त्यनुशासन में उनके तीर्थ को सर्वोदयतीर्थ कहा है : सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्प सर्वान्तशून्य च मियोऽनपेक्ष्यम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ प्राचीन काल से ही समाजशास्त्रीय और अशास्त्रीय विसंवादों में जूझता रहा है, बुद्धि और तर्क के आक्रमणों को सहता रहा है, आस्था और ज्ञान के थपेड़ों को झेलता रहा है। तब कहीं एक लम्बे समय के बाद उसे यह अनुभव हुआ कि इन बौद्धिक विषमताओं के तीखे प्रहारों से निष्पक्ष और निर्वैर होकर मुक्त हुआ जा सकता है, शान्ति की पावन धारा में संगीतमय गोते लगाये जा सकते हैं और वादों के विषैले घेरे को मिटाया जा सकता है। इसी तथ्य और अनुभूति ने अनेकान्तवाद को जन्म दिया और इसी ने सर्वोदयवाद की संरचना की। वैयक्तिक और सामुदायिक चेतना शान्ति की प्राप्ति के लिए सदैव से जी तोड़ प्रयत्न करती आ रही है, यह एक ऐतिहासिक तथ्य जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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