Book Title: Anekant aur Syadwad Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 6
________________ जिनेन्द्र भगवान का स्याद्वादरुपी नयचक्र अत्यन्त पैनी धार वाला है। इसे अत्यन्त सावधानी से चलानी चाहिए, अन्यथा धारण करनेवाले का ही मस्तक भंग हो सकता है। इसे चलाने के पूर्व नयचक्र चलाने में चतूर गुरुओं की शरण लेना चाहिए उनके मार्गदर्शन में जिनवाणी का कर्म समझाना चाहिए। __ अनेकान्त और स्याद्वाद सिध्दान्त इतनागूढ व गम्भीर है कि इसे गहराई से और सूक्ष्मता से समझे बिना इसकी तह तक पहुँचना असम्भव है, क्योंकि ऊपर-ऊपर से देखने पर यह एकदम गलत सा प्रतीत होता है। इस सम्बधं में हिन्दु विश्वविद्यालय, काशी के दर्शन-शास्त्र के भूतपूर्व प्रधानाध्यापक श्री फणिभूषण अधिकारी ने लिखा है: "जैनधर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त को जितना गलत समझा गया है, उतना किसी अन्य सिध्दान्त को नहीं। यहां तक कि शंकराचार्य भी इस दोष से मुकत नहीं है, उन्होंने भी इस सिध्दान्त के प्रति अन्याय किया है। यह बात अल्पज्ञ पुरुषों के लिए क्षम्य हो सक्ती थी, किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मै भारत के इस महान विद्वान के लिए तो अक्षम्य ही कहुँगा, यद्यपि मै इस महर्षि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के दर्शनशास्त्र के मूल ग्रन्थों के अध्ययन करने की परवाह नहीं की। हिन्दी के प्रसिद्ध समासोचक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं "प्राचीन दर्जे के हिन्दु धर्मावलम्बी बड़े-बड़े शास्त्री तक अब भी नहीं जानते कि योनियों का स्यावाद किस चिडिया का नाम है।" श्री महामहोपाध्याय सत्य सम्प्रदायाचार्य पं. स्वामी राममिश्रजी शास्त्री, प्रोफेसर संस्कृत कालेज, वाराणसी लिखते है: "में कहाँ तक कहूँ, बड़े-बड़े नामी आचार्यां ने अपने ग्रन्थों में जो जैनमत का खंडन किया है वह ऐसा किया है जिसे सुन-देख हँसी आती है, स्याद्राद यह जैन धर्म का अभेद्य किल्ला है, उसके अन्दर वादी-प्रतिवादियों के मायामयी गोले नहीं प्रवेश कर सकते। जैनधर्म के सिध्दान्त प्राचीन भारतीय तत्वज्ञान और धार्मिक पद्धति के अभ्यासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस स्याद्वाद से सर्व सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है।" संस्कृत के उद्भट विद्वान डॉ. गंगानाथ झा के विचार भी द्रष्टव्य है:"जब से मैने शंकराचार्य द्वारा जैन सिध्दान्त का खंडन पढा है तब से मुझे विश्वास हुआ कि इस सिध्दान्त में बहुत कुछ है। जिसे वेदान्त के आचार्य ने नहीं समझा और जो कुछ अब तक जैनधर्म को जान सका हूँ उससे मेरा द्रढ विश्वास हुआ है कि यदि वे जैनधर्म को उसके मूल ग्रन्थों से देखने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैन धर्म का विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती।" "स्यात्" पद का ठीक-ठीक अर्थ समझना अत्यन्त आवश्यक है। इसके सम्बंध में बहुत भ्रम प्रचलित है-कोई स्यात् का अर्थ संशय करते हैं, कोई शायद तो कोई सम्भावना। इस तरह से स्याद्वाद को शायदवाद, संशयवाद बना देते हैं। "स्यात" शब्द तिडन्त न होकर "निपात" है। वह संदेह का वाचक न होकर एक निश्चित अपेक्षा का वाचक है। "स्यात" शब्द को स्पष्ट करते हुए सार्किक पूरामणि आचार्य समन्तभद्र लिखते है: वाक्येष्वनेकान्तधोती गम्यं प्रति विशेषणं।। स्यानिपातोऽर्थयोगित्वाद् लवकेवलिनामपि ।।१०३।। देह की थकावट का तो उपचार है किंतु मन की थकावट का उपचार नहीं। २२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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