Book Title: Anand Pravachan Part 05
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ सम्पादकीय बंधुओ ! श्रमण संघ के द्वितीय पट्टधर १००८ श्री आनन्द ऋषि जी महाराज की वाणी को अपने में समेटे हुए 'आनन्द- प्रवचन' का यह पंचम पुष्प आपके समक्ष प्रस्तुत हो रहा है । मुझे अतीव हर्ष है कि एक दीर्घकालीन साधना के साधक की प्रवाहित होती हुई वचन- गंगा में से मैं कुछ अंजुलियाँ भरकर आपको प्रदान करती हूँ और आप उस पावन एवं तपः पूत जल से अपनी आत्मा को निर्मल करने का प्रयत्न करते हैं । संत-वाणी की महिमा बताते हुए किसी ने यथार्थं कहा है वेदशास्त्र की अनुभूति तपस्या का जिसमें संचय है, संतों का वर वरद वचन वह मङ्गलमय निर्भय है । क्यों बैठा कर्तव्यमूढ़ नर बन चिन्ता का वाहन ! संत वचन के सुधा-सिन्धु में करले नित अवगाहन । वस्तुतः संतों के वचनों में असंभव को संभव करने की असाधारण शक्ति होती है | आप विचार करेंगे कि क्या शास्त्रों का तथा धर्मग्रन्थों का पठन-पाठन करके हम अपनी आत्मा को उन्नत नहीं बना सकते ? उत्तर में यही कहा जा सकता है कि उपरोक्त कार्य भी हमारी आत्मा को शुद्ध बनाने में सहायक होते हैं, किन्तु सन्त में कुछ ऐसी वर प्रदायिनी एवं उत्कट शक्ति होती है कि वह मन पर अपना तीव्र एवं अद्भुत प्रभाव डालते हैं । इसका कारण यही है कि संत पुरुषों के विचार, वचन और क्रिया में एकता होती है । वे जैसा सोचते हैं, वैसा ही कहते हैं और जैसा कहते हैं, वैसा ही करते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 366