Book Title: Amrut kalash ke Tikakar
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Z_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ पंचम खण्ड : ६२५ "हम यह तो नहीं कह सकते कि सर्वार्थसिद्धिका प्रस्तुत संस्करण सब दृष्टियोंसे अन्तिम है, फिर भी इसे सम्पादित करते समय इस बातका ध्यान अवश्य रखा गया है कि जहाँ तक बने इसे अधिक परिशुद्ध और मूलग्राही बनाया जाय।" इस सम्बन्धमें इतना कहना ही पर्याप्त है कि पण्डितजीने यह कार्य अत्यन्त सफलताके साथ निष्पन्न किया है। उनकी तरफसे कोई कमी नहीं दिखती है। इस संस्करणकी यह भी विशेषता है कि इसमें प्रत्येक शब्द, पद, वाक्यका पूर्ण रूपसे सरल हिन्दीमें अनुवाद किया गया है। प्रत्येक पृष्ठपर नीचेमें पाठ-भेदका निर्देश किया गया है। अनुवादकी विशेषता यह है कि यदि मूलका वाचन न कर केवल अनुवाद ही पढ़ा जाये, तो ऐसा नहीं लगता कि हम किसीका अनुवाद पढ़ ग्रन्थके अन्तमें परिशिष्ट १ में प्रत्येक अध्यायमें समाविष्ट सूत्र तथा उनके मुद्रित पृष्ठकी संख्याका निर्देश किया गया है। इससे सत्रका पता लगानेमें, ढंढने में बहुत सुविधा जान पड़ती है । "उदधत वा के अन्तर्गत सर्वार्थसिद्धिमें हस्तलिखित प्रतियोंके आधारसे जो गाथा, श्लोक या वाक्य उद्धृत मिलते हैं, वे जिन ग्रन्थोंके हैं उनकी सूची दी गई है। अन्तमें "शब्दानुक्रमणिका" संलग्न है जो प्रत्येक शब्द तथा अंगभूत विषय की जानकारी एवं शोध-कार्यके लिए विषय-सामग्रीका संकलन करनेके लिए विशेष रूपसे उपयोगी है। इस प्रकार प्रथम आवत्तिके रूपमें मई. १९५५ में प्रकाशित "सर्वार्थसिद्धि" का यह संस्करण बहुत उपयोगी सिद्ध हआ है। सम्प्रति मद्रण सम्बन्धी परिशद्धता तथा अनवाद विषयक विशद्धताके साथ इस संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्लीको मुद्रण-प्रक्रियासे निर्गमित हो शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है। ऐसे सुन्दर प्रकाशनके लिए ज्ञानपीठ भी निःसन्देह गौरवान्वित हआ है । अमृतकलशके टीकाकार पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री, कटनी आचार्य कुन्दकुन्दका "समयसार" अध्यात्म विषयका एकमात्र श्रेष्ठ ग्रन्थ है। यद्यपि और भी अनेक प्रन्थ बादमें रचे गए हैं, पर उन सब पर “समयसार" की ही छाप है । यह ग्रन्थ उस महापुरुषकी सम्पूर्ण जीवनकी अनुभूतिका निचोड़ है। भगवान महावीरके बाद श्रुतकी परम्परा मौखिक रूपमें चलती रही। जब श्रुतका बहत-सा अंश परम्परागत आचार्योंको विस्मृत हो गया, तब श्री १०८ आचार्य धरसेनने उसे लिपिबद्ध करनेके लिए अपना ज्ञान भूतबलि-पुष्पदन्त दो मुनियोंको दिया, जिन्होंने षट्खण्डागम सूत्रोंकी रचना की। यह लिपि रूपमें आगमकी सर्वप्रथम रचना की। इसका विषय करणातुयोग है; द्रव्यानुयोगका भी वर्णन यथास्थान है जिसके अन्तर्गत अध्यात्मके भी कहीं-कहीं दर्शन होते हैं, पर कुन्दकुन्दाचार्य तो भिन्न प्रकारकी धाराका प्रवाह बहा गए । ७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5