Book Title: Amikshna Gyanopayoga Author(s): Vidyanandmuni Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf View full book textPage 2
________________ यह ज्ञान मनुष्य भव में ही हो सकता है, अतः प्राप्त करने में आलस्य नहीं रखना चाहिए। आचार्य गुणभद्र ने आत्मानुशासन में कहा है कि "प्रज्ञान दुर्लभ है और यदि इसे इस जन्म में प्राप्त नहीं किया गया तो अन्य जन्म में यह अत्यन्त दुर्लभ है।" क्योंकि अन्य जन्म मनुष्य पर्यायवान् हो, यह लिखित प्रमाणपत्र नहीं है। अत: एक जन्म का प्रमाद कितने इतर जन्मों के अन्तर विशोधनीय हो, यह अनिर्वचनीय है। प्राणान्त होना ही मृत्यु नहीं है, प्रमाद ही मुत्यु है। अप्रमत्त को मृत्यु एक बार आती है परन्तु प्रमादी प्रति क्षण मरता है / "प्रमादेसत्याधः पातात्" यही कहता है। ____ ज्ञान की पिपासा कभी शान्त नहीं होती / ज्ञान प्रति क्षण नूतन है, वह कभी जीर्ण या पुरातन नहीं पड़ता / स्वाध्याय, चितन, तप, संयम, ब्रह्मचर्य आदि उपायों से ज्ञान-निधि को प्राप्त किया जाता है। जो चितन के समुद्र पी जाते हैं, स्वाध्याय की सुधा का निरन्तर आस्वादन करते रहते हैं, संयम पर सुमेरु के के समान अचल-स्थिर रहते हैं, वे ज्ञान-प्रसाद के अधिकारी होते हैं / ज्ञानवान् सर्वज्ञ हो जाता है / जिस विषय का स्पर्श करता है, वह उसे अपनी गाथा स्वयं गा कर सुना देता है। दर्पण में जैसे बिम्ब दिखता है, वैसे उसकी आत्मा में सब कुछ झलकने लगता है / ___ मनुष्य के जीवन में ज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है / ज्ञान ही मानव और पश में अन्तर बताता है / विकेकहीन मानव पशु के तुल्य कहा गया है / विद्या की उपलब्धि पुस्तकों से होती है। बालक पुस्तकों से ही ज्ञान का अर्जन करता है / इसलिए ज्ञानार्जन में पुस्तक अन्यतम साधन है / अनुभव से भी ज्ञान प्राप्ति होती है किन्तु वह दुरूह और द्रव्यसाध्य होने से गरीबों को सुगम नहीं होता, जबकि पुस्तकें कम पैसे से ही धनी, निर्धन सबको देश, विदेश, इहलोक, परलोक, विज्ञान, साहित्य, धर्म और संस्कृति का ज्ञान सुगमता से प्राप्त कराती हैं। तीन मुक्तक बन्द करें अब केवल चर्चा कथनी करनी एक करें / कर्म-कलश में भाव-नीर जिनवर का अभिषेक करें। गोष्ठी, सम्मेलन से धर्म-प्रसार नहीं होताअपने सिद्धान्तों का पालन पहले हम सविवेक करें। अपने प्राण सभी को प्यारे सबको हक़ है जीने का। सबको उचित मूल्य चाहिये अपने खून पसीने का / हम न किसी को दुःख पहुँचायें न ही किसी का हक छीने। यत्न करें हम दिल के घाव स्नेह-सूत्र से सीने का / आवश्यकता से ज्यादा भी संग्रह कभी न कर पाये / जो कुछ है सत्य प्रिय है केवल उतना कह पाये / मन, वाणी औ कर्म हमारे सदा नियन्त्रण में रखेजितना भी संभव हो संयम धारण कर हम रह पाये। -दिलीप जैन वी.नि.सं. 2503 17 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2