Book Title: Akalank Granthtraya Ek Anuchintan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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________________ अकलङ्कग्रन्थत्रय : एक अनुचिन्तन • डॉ. कमलेशकुमार जैन, वाराणसी ऑ० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य द्वारा सम्पादित विविध प्राचीन ग्रन्थोंकी शृङ्खलामें आचार्य भट्टाकलङ्कदेव द्वारा रचित लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय और प्रमाणसंग्रह-इन तीन ग्रन्थोंको संकलित कर 'अकलङ्कग्रन्थत्रयम' के नामसे सम्पादित किया गया है, जो सिंघी जैन ज्ञानपीठ कलकत्ता द्वारा सिंघी जैन ग्रन्थमालाके बारहवें पुष्पके रूपमें सन् १९३९ में प्रकाशित हुआ है । आजसे लगभग छप्पन वर्ष पूर्व प्रकाशित विस्तृत प्रस्तावना, विविध टिप्पणियों, पाठ भेदों एवं अनेक परिशिष्टोंसे अलंकृत प्रस्तुत ग्रन्थ आज भी उतना ही प्रामाणिक, उपयोगी एवं कार्यकारी है, जितना इतः पूर्व रहा है । उक्त ग्रन्थत्रयके कर्ता भट्टाकलङ्देव जैनदर्शनके एक महान ज्योतिर्धर आचार्य थे । यदि वे स्वामी समन्तभद्रके उपज्ञ सिद्धान्तोंके उपस्थापक, समर्थक, विवेचक और प्रसारक थे तो सम्प्रति ईसाकी इस बीसवीं शताब्दीमें डॉ० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य स्वामी समन्तभद्र और भट्टाकलदेव इन दोनों आचार्यों के द्वारा रचित ग्रन्थोंके उद्धारकर्ता तथा हिन्दी भाषामें तुलनात्मक अध्ययनके माध्यमसे दार्शनिक जगत्के समक्ष उक्त दोनोंके सिद्धान्तों विचारोंके प्रस्तोता हैं। डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यने 'अकलङ्कग्रन्थ त्रयम्' पर लिखी गई अपनी हिन्दी प्रस्तावनाको सर्वप्रथम दो भागोंमें विभाजित किया है-ग्रन्थकार और ग्रन्थ । ग्रन्थकार अकलङ्कदेवकी जन्मभूमि एवं पितकूल पर विचार किया है। साथ ही उनके स्थिति काल पर भी विचार किया है। उनके द्वारा काल निर्णयकी पद्धति बहुत ही युक्तियुक्त किंवा तर्कसंगत है । अतः भट्टाकलङ्कदेवका समय सन् ७२० के पहले नहीं माना जा सकता है । इस क्रममें उन्होंने भट्टाकलङ्कदेवके ग्रन्थोंकी तुलना अनेक वैदिक दार्शनिकों के साथ की है। यही पद्धति उन्होंने न्यायकूमदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड और सिद्धिविनिश्चय आदि ग्रन्थोंकी प्रस्तावनाओं में भी अपनाई है। प्रस्तुत 'अकलङ्कग्रन्थत्रयम्' में भट्टाकलङ्कदेवको तीन मौलिक कृतियों-लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय और प्रमाणसंग्रहका वैज्ञानिक पद्धतिसे सम्पादन होकर प्रथम बार प्रकाशन हुआ है । हाँ, इतः पूर्व लघीयस्त्रय की मात्र मलकारिओं के साथ अभयचन्द्र कृत वृति अवश्य प्रकाशित हुई है। किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ त्रयमें लघीयस्त्रयको मलकारिकाएँ तो है ही, साथ ही उनपर स्वोपज्ञ विवृत्ति भी प्रकाशित है । लघीयस्त्रय पर आचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा लिखी गई अठारह हजार श्लोक प्रमाण न्यायकुमुदचन्द्र टीकासे उत्थान वाक्य चनकर दिये है। इसी प्रकार न्यायविनिश्चय में वादिराजसूरि विरचित बीस हजार श्लोक प्रमाण न्यायविनिश्चय विवरणसे लिये हैं। प्रमाणसंग्रहकी प्राचीन टीका उपलब्ध न होनेसे उसे ज्योंका त्यों मद्रित किया है। कहीं-कहीं आद्य भागसे कारिकांशको छाँटकर ब्रेकेटमें दे दिया गया है। किसी भी टीका या भाष्यसे मल कारिकाको निकाल लेना बहुत बड़े परिश्रम एवं साहसकी बात है, जिसे डॉ० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्यने सम्पन्न किया है । यह उनकी स्फूर्त प्रतिभाका एक उत्कृष्ट पक्ष है। डॉ सा० ने लघीयस्त्रयको अकलङ्ककर्तृक सिद्ध करने हेतु जिस पद्धतिका प्रयोग किया है, वह अति स्प है। ग्रन्थके आन्तरिक साक्ष्योंको तो उन्होंने ग्रहण किया ही है, साथ ही अन्य परवर्ती ग्रन्थकारों दत लघीयस्त्रयकी कारिकाओंके उद्धरणोंको अकलङ्कदेवके नामोल्लेख पूर्वक जहाँ-जहाँ ग्रहण किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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