Book Title: Ahimsa ka Paridhi me Paryavarana Santulan
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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Page 5
________________ हो, एक तरफ प्रासाद और दूसरी तरफ झोपड़ियाँ हो, एक ओर कुपच और दूसरी ओर भूख से मृत्यु हो तो ऐसा समाज बिना वर्ग संघर्ष के कहाँ रह सकता है? सामाजिक समता की प्रस्थापना और वर्ग संघर्ष की व्यथा-कथा को दूर करने के लिए अहिंसक समाज की रचना और पर्यावरण की विशुद्धि एक अपरिहार्य साधन है। यही धर्म है और यही संयम है और यही सम्यग्ज्ञान और सम्यक् आचरण का सार है। एवं खु णाणिणो सारं जं हिंसइ ण कंचणं। अहिंसा समयं चेव एयावंतं वियाणि या॥ सूत्रकृतांग, १.१.४.१० पर्यावरण पर गंभीरता से विचार किया जाये तो उसका क्षेत्र बहुत विस्तृत हो जाता है। व्यक्ति का शरीर मन और अध्यात्म का परिवेश सब कुछ उसकी सीमा में समाहित हो जाता है। वह वातावरण जो हमारे शरीर और मन को प्रभावित करता है, अपनी प्रवृत्ति से हटकर अध्यात्म को दूषित करता है, हमारे लिए महत्वपूर्ण सिद्ध होता है। प्राचीन आचार्यों ने वातावरण के इस महत्व को भलीभांति आंका और उसे विशुद्ध करने के लिए धर्म का सहारा लिया। इसलिए यों कहा जा सकता है कि धर्म का परिपालन पर्यावरण की विशुद्धि है, शरीर की रक्षा है, मन को संयमित करना है और, आध्यात्मिक वातावरण को सुस्थिर बनाना है। पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों आदि का पर्यावरण की दृष्टि से कितना महत्व है, यह हम इस तथ्य से समझ सकते हैं कि महावीर, बुद्ध और ऋषि महर्षियों ने संबोधि प्राप्ति के लिए किसी न किसी वृक्ष का सहारा लिया जिन्हें हमने बोधि वृक्ष अथवा चैत्यवृक्ष कहा और सूर्य, कच्छप, कमल आदि को तीर्थंकरों का लांछल बना दिया। इतना ही नहीं बल्कि उनका पूजा-विधान और मुकटों में अंकन भी किया जाने लगा। जैसा हमने पीछे संकेत किया है पर्यावरण का प्रथमतः दृश्य संबंध हमारे शरीर से है। जैनाचार्यों ने उपासक दशांग, भगवतीसत्र आदि ग्रंथों में ऐसे बीसों रोगों की चर्चा है जो पर्यावरण के असंतलित हो जाने से हमारे शरीर को घेर लेते हैं और मृत्यु की ओर हमें ढकेल देते हैं। अंग विज्जा में तो इन सारे संदर्भो की एक लंबी लिस्ट मिल जाती है। इन सबकी चर्चा करना यहाँ विस्तार को निमंत्रित करना है, पर इतना तो संकेत किया ही जा सकता है कि संधिवात, साइटिका, लकवा, मिर्गी, सुजाक पायरिया, क्षय, कैंसर, ब्लड प्रेशर आदि जैसे रोगों का मुख्य कारण कब्ज है और गलत आहार-विहार तथा श्रम का अभाव है। शुद्ध शाकाहार प्राकृतिक आहार है और संयमित-नियमित भोजन रोगों के निदान, उत्तम स्वास्थ्य और मन की खुशहाली का मूल कारण है। मोटा खाना, मोटा पहिनना" की उक्ति के साथ “पैर गरम, सर रहे ठंडा, फिर डाक्टर आये तो मारो डंडा" की कहावत उल्लेखनीय है जिसमें शाकाहार पर बल दिया गया है। मांसाहार एक ओर जहाँ मानसिक क्रियाओं को असंतुलित करता है वहीं वह शरीर को भी बुरी तरह प्रभावित करता है इसलिए जैनाचार्यों ने अहिंसा की परिधि में शाकाहार पर बहुत जोर दिया है और उन पदार्थों के सेवन का निषेध किया है जो किसी भी दृष्टि से हिंसाजन्य है इसलिए प्राकृतिक चिकित्सा अहिंसात्मक साधना के लिए सर्वाधिक अनुकूल पैथी है। पर्यावरण को असंतुलित करने में क्रोधादि कषायें अधिक कारणभूत बनती हैं। रक्तचाप, मधुमेह, कैंसर आदि जैसी भयानक बीमारियाँ हमारे मानसिक असंतुलन से होती है जिन्हें योग साधना के माध्यम से संयमित किया जा सकता है। सारे आगम ग्रंथ प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से मन को शुभ भावों की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं और आत्म विशुद्धि के लिए योग साधना की विविध क्रियाओं को स्पष्ट करते हैं। (२०१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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