Book Title: Ahimsa Vartaman Yuga me
Author(s): Manekchand Katariya
Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ तोड़ा है। हम टूट कर दो समानान्तर पटरियों पर दौड़ लगा रहे हैं। एक पटरी पर दौड़कर संग्रह कर रहे हैं और दूसरी पटरी पर चलकर उसमें से थोड़ा बाँट आते हैं, ताकि करुणा को, त्याग को, संयम को और जिसे हमने 'धर्म' नाम दे रखा है उसे थोड़ा समाधान मिल जाय। यह बहुत साफ है कि आदमी अपने स्वधर्म पर नहीं हैं। उसने अपने समाज जीवन में जिन प्रतिष्ठा प्रतिमानों को आत्मसात् किया है वही उसका सेकण्ड नेचर-संस्कारित धर्म बन गया है और इसे ही दोनों हाथों से वह थामे हुए है। इसलिए आज हम मनुष्य के चेहरे पर जो अहिंसा देख रहे हैं वह बहुत ऊपर-ऊपर है-एकदम सतह पर है। यों हिंसा को समर्थन नहीं है। कोई उसकी पैरवी नहीं करता। मारकाट,दंगा-फसाद, जोर-जबर्दस्ती, हत्या, 'युद्ध मनुष्य की लाचारी भले ही हो, उसके जीवन का मान्य रास्ता नहीं है। वह हिंसा । बचना चाहता है। समाज व्यवस्था के प्रत्येक बिन्दु पर हम इसी बात की चौकीदारी में लगे हैं कि हिंसा कहीं से फूट न पड़े। पंचायतों और जनपदों से लेकर संयुक्तराष्ट्रसंघ तक जितनी व्यवस्थाएँ मनुष्य ने अपने-अपने दायरों में खड़ी की हैं, वे सब इसी उधेड़बुन में हैं कि समाज में शान्ति कायम रहे और आदमी आदमी बना रहे। बल्कि इसी अमनोअमानके लिए हमारे पास पुलिस और फौज की व्यवस्था है। इतनी ज्यादा है कि मनुष्य की सर्वाधिक ताकत इसी में खर्च हो रही है। फिर भी हिंसा जहाँ-तहाँ फूट पड़ती है और यदि सारे संसार के पुलिस थानों के रोजनामचे एकत्र किए जायें तो हम काँप जायेंगे। कबीर को हरिगुण का वर्णन करने के लिए सात समंदर की मसि चाहिए थी, लेकिन पूरे विश्व के चप्पे-चप्पे पर चल रहे अन्याय, अत्याचार और शोषण की कहानी लिखने के लिए सात समंदर की मसि से कुछ नहीं होगा। ये दो चीजें एक साथ कैसे चलेंगी? हिंसा के जितने ब्रीडिंग ग्राउण्ड-उपज स्थान हैं वे कायम रहेंगे, बल्कि दिन-दूने रात-चौगुने बढ़ते जायेंगे और अधिकाअधिक पुष्ट होते जाएँगे, साथ ही हम अपने चेहरे, अपनी संस्कृति, अपने सारे धर्म-ग्रन्थ, अपने सम्पूर्ण नीति वचन अहिंसा के चरणों में न्यौछावर करते जायेंगे-तो ये दोनों बातें एकसाथ कैसे चलेंगी? इसलिए मैं कहता हूँ कि आज का मनुष्य एक ब्रोकन मैन-टूटा हुआ मनुष्य है। एक ही मनुष्य का एक हिस्सा जमकर हिंसा में जी रहा है और उसी का एक हिस्सा अहिंसा का गीत गा रहा है। जब वह अपने-आप में होता है तो उसकी संवेदना पिघलती है, उसकी तृष्णा गलती है, उसकी करुणा सक्रिय होती है। उसे बाहुल्य नहीं चाहिए। वह अपना कौर किसी भूखे के मुँह में देकर संतुष्ट होता है। लेकिन जब वही समाज के बीच होता है, व्यापार-व्यवसाय में होता है, राज-सत्ता में होता है, किसी पद पर आसीन है, किसी मान-मर्यादा में लिप्त है तब वह एकदम बदला हुआ मनुष्य है-तब उसे चाहिए ही चाहिए। जितना पाया है वह कम है। जैसी भी हो चाहिए-एक से एक बढ़िया वस्तु चाहिए। वह समाज के जिस धरातल पर है उससे भी अधिक ऊँचा धरातल उसे चाहिए। इस तरह मनुष्य ने अपनी डबल परसनालिटी-दोहरा व्यक्तित्व रच लिया है। वह अपने-आप में कुछ और है तथा अपने आसपास के संसार में कुछ दूसरा ही आदमी है। हिंसा का काम इस कारण अहिंसा एक मुकाम पर आकर ठिठक गई है। वह इतना ही चल पाई कि काया खुद की हिंसा से बची रह जाय। अहिंसा को रसोईघर में स्थापित करके हम बहुत प्रसन्न २३० संसार में काम-राग के भक्त अधिक होते है, त्याग के आकाश में पहुंचने वाले विरल होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5