Book Title: Agyan Sabhi Rogo ka Mul Hai
Author(s): Chanchalmal Choradiya
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 2
________________ यतीन्दर स्मारक ग्रन्थ जाएगा। शारीरिक मानसिक अथवा आत्मिक रोगी बनता जाएगा। जितना - जितना अपने स्वभाव को विकसित करेगा स्वस्थ बनता जाएगा। अपने आपको पूर्ण स्वस्थ रखने की कामना रखने वालों को इस तथ्य, सत्य का चिंतन कर अपने लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ना चाहिए। आरोग्य एवं नीरोगता में अंतर 'नीरोग' का मतलब है। रोग उत्पन्न ही न हो और 'आरोग्य' का मतलब है। शरीर में रोगों की उपस्थिति होते हुए भी हमें उनकी पीड़ा एवं दुष्प्रभावों का अनुभव न हो। आज हमारा सारा प्रयास आरोग्य रहने तक ही सीमित हो गया है। उसमें भी हम मात्र शारीरिक रोगों को ही रोग मान रहे हैं। मानसिक एवं आत्मिक रोग जो ज्यादा खतरनाक हैं, हमें जन्म-मरण एवं विभिन्न योनियों में भटकाने वाले हैं, की तरफ ध्यान ही नहीं। शारीरिक रूप से भी नीरोग बनना असंभव सा लगता है। चाहे रोग शारीरिक हों, चाहे मानसिक अथवा आत्मिक उनका प्रभाव तो शरीर पर ही पड़ेगा। अभिव्यक्ति तो शरीर के माध्यम से ही होगी, क्योंकि मन और आत्मा अरूपी हैं । उनको इन भौतिक आँखों से नहीं देखा जा सकता। मुख्य रूप से रोग आधि (मानसिक) व्याधि (शारीरिक) उपाधि (कर्मजन्य) के रूप में ही प्रकट होते हैं। अतः आधि, व्याधि, उपाधि का शमन करने से ही समाधि परम शांति अथवा स्वास्थ्य अर्थात् नीरोग - अवस्था की प्राप्ति हो सकती है। स्वास्थ्य का सम्यक् दर्शन - सम्यग्दर्शन का सीधा-साधा सरल अर्थ होता है सही दृष्टि, सत्य दृष्टि, सही विश्वास । अर्थात् जो वस्तु जैसी है जितनी महत्त्वपूर्ण है, जितनी उपयोगी है, उसको उसके स्वरूप, गुण एवं धर्म के आधार पर जानना । सम्यक् दर्शन से स्वविवेक जागृत होता है। स्वदोषदर्शन की प्रवृत्ति विकसित होती है। वस्तुस्थिति ऐसी हो गई है कि हमारा शरीर रूपी नौकर एवं मन रूपी मुनीम आत्मा रूपी मालिक पर शासन कर रहें हैं। हमारी स्थिति उस शेर के समान हो गई है जो भेड़ियों के बीच पल कर बड़ा होने से अपनी शक्तियों का भान भूल जाता है। सम्यग्दर्शन से आत्मा और शरीर का भेदज्ञान होता है। आत्मा का साक्षात्कार होने से उसकी अनन्त शक्ति का भान होने लगता है। उसके ऊपर आए Jain Education International आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म कर्मों की तरफ दृष्टि जाने लगती है। उसके शुद्धिकरण का प्रयास प्रारंभ होने लगता है। सभी चेतनशील प्राणियों में एक जैसी आत्मा के दर्शन होने लगते हैं। सत्य प्रकट होते ही पूर्वाग्रह एवं एकान्तवादी दृष्टिकोण समाप्त होने लगता है । अनेकान्तवादी दृष्टि विकसित होने लगती है। जैसे खुद को दुःख होता है वैसे ही दूसरों के दुःख का अनुभव होने लगता है। अतः स्वयं के लाभ के लिए दूसरों को कष्ट पहुँचाने की प्रवृत्ति कम होने लगती है । सत्य को पाने के लिए उसका सारा प्रयास होने लगता है एवं अनुपयोगी कार्यों के प्रति उसमें उदासीनता आने लगती है और जीवन में समभाव बढ़ने लगता है। अर्थात् उसके जीवन में सम (समता), संवेग (सत्य को पाने की तीव्र अभिलाषा), निर्वेद (अनुपयोगी कार्यों के प्रति उपेक्षावृति), अनुकम्पा ( प्राणिमात्र के प्रति दया, करुणा, परोपकार, मैत्री का भाव) तथा सत्य के प्रति आस्था हो जाती है। यही सम्यक्त्व के पाँच लक्षण है। उसका उद्देश्य मेरा जो सच्चा के स्थान पर सच्चा जो मेरा हो जाता है। उसका जीवन स्वर पर कल्याण के लिए ही कार्यरत रहता है। सम्यक्दर्शी का चिकित्सा के प्रति दृष्टिकोण - सम्यग्दर्शन होने पर व्यक्ति रोग के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष, वर्तमान एवं भूत संबंधी शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक कारणों को देखेगा, समझेगा और उन कारणओं से बचने का प्रयास करने लगेगा। फलतः रोग उत्पन्न होने की संभावनाएँ बहुत कम हो जाएँगी। जो स्वस्थ रहने के लिए अति आवश्यक है। रोग उत्पन्न हो भी गया हो तो उसके लिए दूसरों को दोष देने के बजाय स्वयं की गलतियों को ही उसका प्रमुख कारण मानेगा तथा धैर्य एवं सहनशीलता पूर्वक उसका उपचार करेगा । उपचार कराते समय क्षणिक राहत से प्रभावित नहीं होगा, दुष्प्रभावों की उपेक्षा नहीं करेगा। साधन, साध्य एवं सामग्री की पवित्रता पर विशेष ध्यान रखेगा। ऐसी दवाओं से बचेगा जिनके निर्माण एवं परीक्षण में किसी भी जीव को कष्ट पहुँचता हो । उपचार के लिए अनावश्यक हिंसा को प्रोत्साहन नहीं देगा। आशय यह है कि सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् व्यक्ति पाप के कार्यों अर्थात् अशुभ प्रवृत्तियों से यथा संभव बचने का प्रयास करता है। उसका जीवन पानी में कमल की भाँति निर्लिप्त होने लगता है। प्रत्येक कार्य को करने में उसका विवेक एवं सजगता जागृत होने लगते हैं। अनुकूल एवं SGSTO [ ४१ G For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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