Book Title: Agam Tika Parampara ko Acharya Hastimalji ka Yogdan Author(s): Dharmchand Jain Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 4
________________ · ६ • पद यात्रा पर थे तब उन्होंने इसकी प्रतिलिपि करवा कर इसे संशोधित एवं सम्पादित किया । 'बृहत्कल्प' के ये संस्कृत टीकाकार कौन थे, यह ज्ञात नहीं किन्तु यह संकेत अवश्य मिलता है कि श्री सौभाग्य सागर सूरि ने इस सुबोधा टीका को बृहट्टीका से उद्धृत किया था । उसी सुबोधा टीका का सम्पादन आचार्य श्री ने किया । व्यक्तित्व एवं कृतित्व 'बृहत्कल्प सूत्र' छेद सूत्र है जिसमें साधु-साध्वी की समाचारी के कल्प का वर्णन है । आचार्य प्रवर ने सम्पूर्ण कल्प सूत्र की विषय-वस्तु को हिन्दी पाठकों के लिए संक्षेप में 'बृहत्कल्प परिचय' शीर्षक से दिया है जो बहुत उपयोगी एवं सारगर्भित है । अन्त में पांच परिशिष्ट हैं । प्रथम परिशिष्ट में अकारादि के क्रम से सूत्र के शब्दों का हिन्दी अर्थ दिया गया है जो ३४ पृष्ठों तक चलता है । द्वितीय परिशिष्ट में पाठ-भेद का निर्देश है । तृतीय परिशिष्ट 'बृहत्कल्प सूत्र' की विभिन्न प्रतियों के परिचय से सम्बद्ध है चतुर्थ परिशिष्ट में वृत्ति में आए विशेष नामों का उल्लेख है जो शोधार्थियों के लिए उपादेय है। पंचम परिशिष्ट में कुछ विशेष शब्दों पर संस्कृत भाषा में विस्तृत टिप्पण दिया गया है । यह संस्कृत टीका अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । इसकी भाषा सरल, सुबोध एवं प्रसाद-गुण से समन्वित है किन्तु इसमें सूत्रोद्दिष्ट तथ्यों का विशद विवेचन है । संस्कृत अध्येतानों के लिए यह टीका आज भी महत्त्वपूर्ण है । आचार्य प्रवर ने जब संस्कृत टीका का सम्पादन किया तब 'बृहत्कल्प सूत्र' के दो-तीन संस्करण निकल चुके थे । प्रात्मानन्द जैन सभा, भाव नगर से निर्युक्ति, भाष्य और टीका सहित यह सूत्र छह भागों में प्रकाशित हो चुका था किन्तु वह सबके लिए सुलभ नहीं था । डॉ० जीवराज छेला भाई कृत गुजराती अनुवाद एवं पूज्य अमोलक ऋषिजी म० कृत हिन्दी अनुवाद निकल चुके थे तथापि प्राचार्य प्रवर द्वारा सम्पादित यह संस्कृत टीका शुद्धता, विशदता एवं संक्षिप्तता की दृष्टि से विशिष्ट महत्त्व रखती है । इसका सम्पादन आचार्य प्रवर के संस्कृत-ज्ञान एवं शास्त्र - ज्ञान की क्षमता को पुष्ट करता है । Jain Educationa International प्रश्न व्याकरण सूत्र : 'नन्दी सूत्र' के प्रकाशन के प्राठ वर्ष पश्चात् दिसम्बर १९५० ई० में 'प्रश्न व्याकरण सूत्र' संस्कृत छाया, अन्वयार्थ, भाषा टीका ( भावार्थ ) एवं टिप्पणियों के साथ पाली ( मारवाड़) से प्रकाशित हुआ । इसका प्रकाशन सुश्रावक श्री हस्तीमलजी सुराणा ने कराया । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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