Book Title: Agam Sahitya me Yoga ke Bij Author(s): Rakeshmuni Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 4
________________ इन उत्तरवर्ती उल्लेखों से प्रतीत होता है कि कभी जैन-परम्परा में यह अभ्यासक्रम सुव्यवस्थित रूप में विद्यमान था, पर आगे चलकर योग का यह अंग अप्रचलित हो गया। फलत: आज स्थिति यह है कि ऊपर जिन आसनों की चर्चा की गई है, उनमें से कुछ को छोड़कर सबको क्रियात्मक रूप में उपस्थापित भी नहीं किया जा सकता। औपपातिकसूत्र में बाह्य एवं आभ्यन्तर तप का एक प्रसंग है, जहां उनकी भेदोपभेद के साथ विस्तृत व्याख्या की गई है। वहां प्रायश्चित्त के दस भेद बताये गये हैं। उनमें पांचवां व्युत्सर्गाहं नामक भेद है उसका आशय कायोत्सर्ग से निष्पन्न होने वाला प्रायश्चित्त है। नदी पार करना, उच्चार-प्रतिष्ठापन में अनिवार्य रूप में दोष होना आदि की शुद्धि हेतु यह प्रायश्चित्त है। भिन्न-भिन्न दोषों के लिए भिन्न परिणाम में श्वासोच्छ्वासयुक्त कायोत्सर्ग का विधान है। इस प्रसंग में सहज ही अनुमान होता है कि श्वास-प्रश्वासात्मक प्रक्रिया, जिसका प्राणायाम में समावेश है, जैन-परम्परा में यथावश्यक रूप में प्रयुक्त होती रही है। उपर्युक्त प्रसंगों के अलावा कायोत्सर्ग, प्रतिसंलीनता आदि तप से सम्बद्ध और भी अनेक विषय हैं, जो औपपातिक आदि में विशेष रूप से व्याख्यात हुए हैं, जिनका जैन-योग के अध्ययन की दृष्टि से ध्यान, धारणा, प्रत्याहार आदि के सन्दर्भ में विशेष महत्व है। इस प्रकार आगम वाङ्मय में विकीर्ण रूप से जैन-योग के बीज पुष्कल मात्रा में प्राप्य हैं, जिनके संचयन के लिए प्रचुर अध्यवसाय व गवेषणा-बुद्धि की आवश्यकता है। ध्यान चार प्रकार का है—आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान / आर्तध्यान - इष्ट-वियोगज, अनिष्ट-संयोगज, निदान, वेदनाजनित--ये चार भेद आर्तध्यान के हैं / प्रियभ्र शेऽप्रियप्राप्तौ निदाने वेदनोदये। आत्तं कषायसंयुक्तं ध्यानमुक्तं समासतः / / तत्त्वार्थसार, 36 रौद्रध्यान—हिंसानन्द, मृषानन्द, स्तेयानन्द और विषयसंरक्षणानन्द-ये चार रौद्रध्यान के भेद हैं। हिंसायामन्ते स्तेये तथा विषयरक्षणे / रौद्र कषायसंयुक्तं ध्यानमुक्तं समासतः।। तत्त्वार्थसार, 37 आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान में अशुभ-परिणति की ही प्रधानता है, अत: ये संसार के कारणरूप हैं। दूसरे शब्दों में अशुभोपयोग का नाम ही आर्त-रौद्र-ध्यान है। धर्म्यध्यान-अशुभपरिणति का परित्याग करके प्राणी जब शुभ परिणति में आता है, तब उसका सम्यग्दर्शन के साथ होने वाला शुभोपयोग ही धर्म्यध्यान कहलाता है। यह आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय के भेद से चार प्रकार का है / आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयायधर्म्यम् / तत्त्वार्थसूत्र शुक्लध्यान-शुद्धोपयोगरूप ध्यान को शुक्लध्यान कहते हैं / शुक्ल का अर्थ है-स्वच्छ, श्वेत जिसमें भी प्रकार का विकार न हो अर्थात् इसमें एकमात्र वीतरागदशा का ही चिन्तन होता है / दशा से यहां पर्यायवान् द्रव्य तथा उसके गुण आदि सभी विवक्षित हैं। इसके आगमों में चार भेद माने गए हैं—पृथक्त्ववितर्कविचार, एकत्ववितर्कविचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपत्ति और व्युपरतक्रियानिवृत्ति / (आचार्यरत्न देशभूषण जी महाराज कृत उपदेशसारसंग्रह, भाग 5, राजस्थान, वी०नि० सं० 2485 से उद्धृत) आज्ञाप 1. 'से किं तं पायच्छिते ? दसविहे पण्णत्ते / तंजहा–(१) पालोयणारिहे, (2) पडिक्कमणारिहे, (3) तदुभयारिहे, (4) विवेगारिहे, (5) विउसग्गरिहे, (6) तवारिहे, (7) छेदारिहे, (8) मूलारिहे, (6) अणवट्टप्पारिहे, (10) पारंचियारिहे।', औपपातिकसूत्र, 30 जैन दर्शन मीमांसा 143 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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