Book Title: Agam Sahitya me Prakirnako ka Sthan Mahavattva Rachnakal evam Rachayita
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf

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Page 1
________________ आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान किसी भी धार्मिक परम्परा का आधार उसके धर्मग्रन्थ होते हैं, जिन्हें वह प्रमाणभूत मानकर चलती है। जिस प्रकार मुसलमानों के लिये कुरान, ईसाईयों के लिये बाइबिल, बौद्धों के लिये त्रिपिटक और हिन्दुओं के लिये वेद प्रमाणभूत ग्रन्थ हैं, उसी प्रकार जैनों के लिये आगम प्रमाणभूत ग्रन्थ हैं। सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र, नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में आगमों का वर्गीकरण अंगबाह्य के रूप में किया गया है। परम्परागत अवधारणा यह है कि तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट और गणधरों द्वारा रचित ग्रन्थ अंगप्रविष्ट आगम कहे जाते हैं। इनकी संख्या बारह है, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में समान रूप से स्वीकृत है। इन अंग आगमों के नाम हैं - १. आचारांग, २, सूत्रकृतांग, ३. स्थानांग, ४. समवायांग, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ज्ञाताधर्मकथांग, ७. उपासकदशांग, ८. अन्तकृद्दशांग, ९. अनुत्तरौपपातिकदशा १०. प्रश्नव्याकरणदशा, ११. विपाकदशा और १२. दृष्टिवाद। इनके नाम और क्रम के सम्बन्ध में भी दोनों परम्पराओं में एकरूपता है। मूलभूत अन्तर मात्र यह है कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा आज भी दृष्टिवाद के अतिरिक्त शेष ग्यारह अंगों का अस्तित्व स्वीकार करती है, वहाँ दिगम्बर परम्परा आज मात्र दृष्टिवाद के आधार पर निर्मित कसायपाहुड, षट्खण्डागम आदि के अतिरिक्त इन अंग-आगमों को विलुप्त मानती है। अंगबाह्य वे ग्रन्थ हैं जो जिनवचन के आधार पर स्थविरों के द्वारा लिखे गए हैं। नन्दीसूत्र में अंग-बाह्य आगमों को भी प्रथमतः दो भागों में विभाजित किया गया है -- १. आवश्यक और २. आवश्यक व्यतिरिक्त। आवश्यक के अन्तर्गत सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान, ये छः ग्रन्थ सम्मिलित रूप से आते हैं, जिन्हें आज आवश्यकसूत्र के नाम से जाना जाता है। इसी ग्रन्थ में आवश्यक व्यतिरिक्त आगम-ग्रन्थों को भी पुन: दो भागों में विभाजित किया गया है - १. कालिक और २. उत्कालिक। आज प्रकीर्णकों में वर्गीकृत नौ ग्रन्थ इन्हीं दो विभागों के अन्तर्गत उल्लिखित हैं। इसमें कालिक के अन्तर्गत ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, इन दो प्रकीर्णकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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