Book Title: Agam Sahitya me Dhyan ka Swarup
Author(s): Shivmuni
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 3
________________ धर्मध्यान में बाह्य साधनों का आधार रहता गत सूत्र के आधार से उत्पाद व्यय आदि किसी एक ही पर्याय का विचार करना है। विचार करते धर्मध्यान के चार आलम्बन समय द्रव्य, पर्याय, शब्द योग इनमें से किसी एक (१) वांचना-शिष्य के लिए कर्म निर्जरार्थ का आलम्बन रहता है। इस अवस्था में पदार्थ पर सूत्रोपदेश आदि देना। संक्रमण नहीं होता । प्रथम ध्यान में एक द्रव्य या पदार्थ को छोड़कर दूसरे द्रव्य और पदार्थ की || (२) प्रच्छना-अध्ययन के समय सूत्रों में हुई प्रवत्ति होती है । परन्तु दूसरे ध्यान में यह प्रवृत्ति ! शंका का गुरु से उसका समाधान प्राप्त करना। रुक जाती है। शुक्लध्यान के ये दोनों प्रकार सातवें 112 (3) परिवर्तना-सूत्र विस्मृत न हो जाय इस- एवं बारहवें गुणस्थान तक होते हैं। लिए पूर्व पठित सूत्र का बार-बार स्मरण करना, (३) सूक्ष्म क्रियाऽ प्रतिपाती-निर्वाण गमनकाल अभ्यास करना। में उसी केवली जीव को यह ध्यान होता है | -सूत्र अर्थ का बार-बार चिन्तन जिसने मन, वचन एवं योग का निरोध कर लिया। मनन करते रहना । इसके चार भेद हैं। हो। इस अवस्था में काया को छोड़कर शेष भाग (अ) एकानुप्रेक्षा-आत्मा एक है। निष्क्रिय हो जाते हैं। यह ध्यान तेरहवें गुणस्थानवर्ती 13 (ब) अनित्यानुप्रेक्षा--सांसारिक सभी पदार्थ । ___ को ही होता है। अनित्य हैं, नश्वर हैं-ऐसी भावना करना। (४) व्युपरतक्रिया निवृत्ति-तीन योग से (स) अशरणानप्रेक्षा-इस विराट विश्व में रहित होने पर यह चतुर्थ ध्यान होता है । इस || कोई भी मेरी आत्मा का संरक्षक नहीं है. इस प्रकार अवस्था में काया भी निःशेष हो जाती है। साधक का विचार करना। सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेता है। चौदहवें स्थान में यह ध्यान होता है । पूर्ण क्षमा, पूर्ण मार्दव | (द) संसारानुप्रेक्षा-ऐसा कोई भी पयोय अव- आदि गणों के कारण यह अवस्था प्रकट होती है। शेष नहीं रहा जहाँ आत्मा का जन्म-मरण नहीं हआ हो, इस प्रकार का विचार करना। ये भी भेद- शुक्लध्यान के चार लक्षणउपभेद धर्मध्यान का सुगम बोध कराते हैं। (१) अव्यथम -व्यथा का अभाव होना। (४) शक्लध्यान-जिस ध्यान से आठ प्रकार (२) असंमोह-मूच्छित अवस्था न रहना, I । के कर्मरज से आत्मा की शुद्धि हो जाती है, उसे प्रमादी न होना। है शुक्लध्यान कहते हैं, इसका उदय सातवें गुणस्थान विवेक-बुद्धि द्वारा आत्मा को देह से F के बाद ही संभव है । इसके चार उपभेद हैं। पथक एवं आत्मा से सर्व संयोगों को अलग करना। (५) पृथक्त्व वितर्क सविचार-इसमें साधक (४) व्युत्सर्ग-शरीर एवं अन्य उपाधियों का मनोयोग, वचनयोग और काययोग इन तीनों में से छूट जाना। किसी एक योग का आलम्बन होता है। फिर उसे छोड़कर अन्य योगों का आलम्बन लेता है, वह पदार्थ शुक्लध्यान के चार आलम्बनके पर्यायों पर चिन्तन करता है । यह सब उसके (१) क्षमा, (२) मुक्ति (निर्लोभता), (३) YA आत्मज्ञान पर निर्भर करता है। आर्जव (सरलता) एवं (४) मृदुता (विनम्रता) ये (२) एकत्व वितर्क अविचार- इस ध्यान में पूर्व- चार शुक्लध्यान के आलम्बन हैं। तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन k साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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