Book Title: Agam Sahitya ka Anushilan
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf

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________________ दिगम्बर मान्यतानुसार भी आगमों का यही वर्गीकरण लगभग माना जाता है। अंगबाह्य इससे भिन्न है। साथ में दिगम्बर मान्यता यह भी है कि कालदोष से ये आगम नष्ट हो गए हैं १२६ दिगम्बरों के अनुसार दृष्टिवाद के ५ भेद माने गए हैं, उनमें परिकर्म के चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीपसागर प्रज्ञप्ति और व्याख्या प्रज्ञप्ति तथा चूलिका के जलगतचूलिका, स्थलगतचूलिका, मायागतचूलिका रूपगत चूलिका और आकाशगतचूलिका नामक है। 96 कुछ लोगों की मान्यता ९४ आगमों को प्रामाणिक मानने की भी है। उनमें ११ अंग, १२ उपांग, ५ मूल, ५ छेद, ३० पइण्णा, पक्खियसुत खमणामुत्त, वंदितुमुत्त, इसिमासिय, पज्जोसणकप्प, जीयकप्प, जइजीयकप्प, सद्धजीयकप्प १२ निर्युक्ति, विशेसावरस्यभास जैन आगमों का एक वर्गीकरण अनुयोगों के आधार पर भी किया गया है। इसके कर्ता आर्यरक्षित माने जाते हैं जो कि नौ पूर्वो के धारक और दसवें पूर्व के २४ यविक के ज्ञाता थे?" इन्होंने सभी आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त किया १ चरण-करणानुयोग महाकल्प, छेदश्रुत आदि। २ - धर्मकथानुयोग - ज्ञाता धर्म कथांग, उत्तराध्ययन सूत्र आदि । ३ गणितानुयोग सूर्यप्रज्ञप्ति आदि । - ४- द्रव्यानुयोग दृष्टिवाद आदि विषय सादृश्य की दृष्टि से प्रस्तुत वर्गीकरण किया गया है। व्याख्या क्रम की दृष्टि से आगमों के दो रूप होते हैं: (१) अपृथक्त्वानुयोग (२) पृथक्त्वानुयोग सूत्र कृतांग चूर्णि के अभिमतानुसार अपृथक्त्वानुयोग के समय प्रत्येक सूत्र की व्याख्या चरण-करण, धर्म गणित, और द्रव्य आदि अनुयोग की दृष्टि से व सप्त नय की दृष्टि से की जाती थी, परन्तु पृथक्त्वानुयोग के समय चारों अनुयोगों की व्याख्याएं अलग-अलग की जाने लगी यह वर्गीकरण होने पर भी यह भेदरेखा नहीं खींची जा सकती कि अन्य आगमों में अन्य वर्णन नहीं है। उत्तराध्ययन में धर्म कथाओं के अतिरिक्त दार्शनिक तत्व भी पर्याप्त रूप में है भगवती आचारांग आदि में भी यही बात है सारांश यह है कि कुछ आगमों को छोड़कर शेष आगमों में चारों अनुयोगों का संमिश्रण है। : आगमों की वाचनाएं महावीर निर्वाण (ई. सन् के पूर्व ५२७) के लगभग १६० वर्ष पश्चात् (ई. सन् के पूर्व ३६७) चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में मगध देश में भयंकर दुष्काल पढ़ने से अनेक जैन मुनि भद्रबाहु के नेतृत्व में समुद्रतट की ओर प्रस्थान कर गए, शेष स्थूलभद्र (महावीर निर्वाण के २१९ वर्ष पश्चात् स्वर्गगमन) के नेतृत्व में वहीं रहे। दुष्काल समाप्ति पर स्थूलभद्र ने श्रमणों का एक सम्मेलन बुलाया, जिसमें श्रुतज्ञान का ११ अंगों में संकलन किया गया दृष्टिवाद विस्मृति के कारण संकलित नहीं हो सका चौदह पूर्वज्ञ केवल भद्रबाहु थे, जो उस समय नेपाल में महाप्राणव्रत साधना कर रहे थे। पूर्वों के श्रीमद जयत्सेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ वाचनाही Jain Education International ४० ज्ञान हेतु कतिपय साधुओं को उनके पास भेजा, इनमें केवल स्थूलभद्र ही प्राप्त कर सके उन्हें पाटलीपुत्र के सम्मेलन में संकलित कर लिया गया। इसे पाटलित वाचना के नाम से कहा जाता है। १ कुछ समय पश्चात्, महावीर निर्वाण के लगभग ८२७ या ८४० वर्षभाद (ईसवी सन् ३००-३१३) आगमों को पुनः व्यवस्थित रूप देने के लिए, आर्य कंदिल के नेतृत्व में मथुरा में दूसरा सम्मेलन हुआ दुष्काल के कारण इस समय भी आगमों को क्षति पहुंची। दुष्काल समाप्त होने पर, इस सम्मेलन में जिसे जो कुछ स्मरण था, उसे कालिक श्रुत के रूप में संकलित कर लिया गया। जैन आगमों की यह दूसरी वाचना थी जिसे माधुरी वाचना के नाम से कहा जाता है । २३ लगभग इसी समय नागार्जुनसूरि के नेतृत्व में बल्लभी (सौराष्ट्र) में एक और सम्मेलन भरा। इसमें जो सूत्र विस्मृत हो गए थे उनका संघटनापूर्वक सिद्धान्तों का उद्धार किया गया । २४ तत्पश्चात् महावीर निर्वाण के लगभग ९८० या ९९३ वर्ष बाद (ई. सन् ४५३-४६६) बल्लभी में देवर्षिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में अन्तिम सम्मेलन हुआ, जिसमें विविध पाठान्तर और वाचना भेद आदिको व्यवस्थित कर, माथुरी वाचना के आधार से आगमों को संकलित करके उन्हें लिपिबद्ध किया गया। दृष्टिवाद फिर भी उपलब्ध न हो सका, अतएव उसे व्यक्त्रि घोषित कर दिया गया। श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा मान्य वर्तमान आगम इसी अन्तिम संकलना का परिणाम है। दिगम्बर जैन आगम :- दिगम्बर दृष्टि से द्वादशांग का विच्छेद हो गया केवल दृष्टिवाद का कुछ अंश अवशेष रहा है, जो षट्खण्डागम के रूप में आज भी प्रसिद्ध है। षट्खण्डागम - यह आचार्य भूतबलि व पुष्पदन्त की महत्वपूर्ण रचना है। दिगम्बर विद्वान् इसका रचनाकाल विक्रम प्रथम सदी मानते हैं। यह ग्रन्थ छह खण्डों में विभक्त होने से ही इसका नाम षट्खण्डागम नाम से विख्यात है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर आगम हैं- कषाय पाहुड, तिलोय पण्णत्ती, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, पंचास्तिकाय दर्शनप्राभूत, चारित्र-प्राभूत, बोधप्राभृत, भावप्राभृत, मोक्षप्राभृत आदि। आगमों की भाषा : भाषा - शास्त्र की दृष्टि से भी आगम साहित्य अत्यन्त उपयोगी है। जैन सूत्रों के अनुसार महावीर भगवान ने अर्धमागधी में अपना उपदेश दिया, इस उपदेश के आधार पर उनके गणधरों ने आगमों की रचना की प्राचीन मान्यतानुसार अर्धगमागधी भाषा को आर्य अनार्य और पशु पक्षियों द्वारा समझी जा सकता थी आंबाल वृद्ध, स्त्री, अनपढ़ आदि सभी लोगों को यह बोधगम्य थी। २६ आचार्य हेमचन्द्र ने आगमों की भाषा को आर्थप्राकृत कहकर व्याकरण के नियमों से बाह्य बताया है त्रिविक्रम ने भी अपने प्राकृत शब्दानुशासन में देश्य भाषाओं की भांति आर्षप्राकृत की स्वतन्त्र उत्पत्ति मानते हुए उसके लिए व्याकरण के नियमों की आवश्यकता नहीं बतायी। तात्पर्य यह है कि आर्य भाषा का आधार संस्कृत न होने से For Private & Personal Use Only अहंकार से बढ़ते तरु, फल आवत झुक जाय । जयन्तसेन नम्र बनो, जीवन भर सुख पाय ॥ www.jainelibrary.org.

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