Book Title: Agam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 14
________________ xii... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण क्रम से और प्रतिदिन कितना करवाना चाहिए इसका भी उल्लेख है । अंग आगमों के अध्ययन की तीन परम्पराएँ हैं- प्रथम परम्परा में केवल मूल पाठ का अध्ययन करवाया जाता है किन्तु जब प्राकृत या अर्द्धमागधी लोक भाषा नहीं रही तब मूल पाठ के साथ अर्थ और विशेष अर्थ को समझाने की परम्परा भी प्रारम्भ हुई। मूल एवं अर्थ का अध्ययन करने के बाद उसके अध्ययन-अध्यापन की आज्ञा रूप तीसरी परम्परा का पालन किया जाता है। मूर्तिपूजक परम्परा में आगमों के अध्ययन के लिए योगोद्वहन की प्रक्रिया अनिवार्य रूप से मान्य रही है किन्तु योगोद्वहन की साधना के साथ-साथ आगमों के अध्ययन और अध्यापन की प्रक्रिया विलुप्त सी हो रही है। आज योगोद्वहन मात्र पारस्परिक प्रक्रिया के रूप में ही जीवित है फिर भी अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में इसकी मूल्यवत्ता को नकारा नहीं जा सकता। योगोद्वहन का शाब्दिक अर्थ है - योग + उद्वहन। जैन परम्परा में योग शब्द का प्रयोग प्राचीन काल में मुख्यतः मन, वचन और काया की प्रवृत्ति के लिए होता था। इस आधार पर योगोद्वहन शब्द का अर्थ मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को सन्मार्ग में नियोजित करना होता है किन्तु ये प्रवृत्तियाँ सन्मार्ग में नियोजित रहें, इस हेतु इन्द्रियों एवं मन को संयमित करना आवश्यक है। इसके लिए तप के साथ जप, स्तवन, स्तुति, वंदन आदि को भी जोड़ दिया गया है और यह माना जाता है कि आचार्य आदि जिनके सान्निध्य में आगमों का अध्ययन करना होता है उनके प्रति विनय का प्रदर्शन आवश्यक है अतः योग की प्रक्रिया में तप के साथ जप और वंदन आदि पर जोर दिया गया है। आगमों में जितने अध्ययन और उद्देशक होते हैं तदनुसार खमासमण, वंदन, कायोत्सर्ग आदि की क्रियाएँ की जाती है। वर्तमान काल में इस क्रिया को थोड़ा सरल बनाते हुए उपवास के स्थान पर आयंबिल, एकासणा आदि की व्यवस्था भी की गई है। आगम आकार में जितना बड़ा होता है उसकी योगोद्वहन विधि भी क्रमशः उतनी ही बढ़ती जाती है। कुछ ग्रन्थों के योगोद्वहन साथ-साथ भी करवाए जाते हैं। उदाहरण के लिए उत्तराध्ययनसूत्र एवं ऋषिभाषितसूत्र का योगोद्वहन एक साथ करवाया जाता है। इस आधार पर मैंने यह निष्कर्ष भी निकाला था कि उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित दोनों एक ही ग्रन्थ रहे होंगे। अंग आगम साहित्य में भगवती आदि, उपांग साहित्य में प्रज्ञापना आदि विस्तृत ग्रन्थ हैं, जबकि निरयावलिका आदि कुछ ग्रन्थ ऐसे हैं जो अत्यन्त छोटे

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