Book Title: Agam 30 mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 720
________________ सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र षट्त्रिंश अध्ययन [564] प्रत्येक संस्थान के बीस-बीस भेद मिलाकर संस्थान-पंचक के १०० संयोगी भंग होते हैं। समग्र भंगों की संकलना ४८२ है। __ ये सब भंग स्थूल दृष्टि से गिने गये हैं। वस्तुतः तारतम्य की दृष्टि से सिद्धान्ततः देखा जाए तो प्रत्येक के अनन्त भंग होते हैं। ___ गाथा ४८-सिद्ध होने के बाद सब जीव समान होते हैं। यहाँ पर बताये गये सिद्धों के स्त्रीलिंग और पुरुषलिंग आदि अनेक प्रकार पूर्व जन्मकालीन विभिन्न स्थितियों की अपेक्षा से हैं। वर्तमान में स्वरूपतः सब सिद्ध एक समान हैं। केवल अवगाहना का अन्तर है। अवगाहना का अर्थ शरीर नहीं है। अपितु अरूप आत्मा भी द्रव्य होने से अपनी अमूर्त आकृति तो रखता ही है। द्रव्य आकरशून्य कभी नहीं होता। आत्मा आकाश के जितने प्रदेश क्षेत्रों को अवगाहन करता है, उस अपेक्षा से सिद्धों की अवगाहना है। गाथा ५६-सिद्ध लोकाग्र में स्थित हैं, इसका अभिप्राय यह है कि उनकी ऊर्ध्वगमन रूप गति वहीं तक है। आगे अलोक में गति हेतुक धर्मास्तिकाय का अभाव होने से गति नहीं है। ____ गाथा ६४-पूर्व-जन्म के अन्तिम देह का जो ऊँचाई का परिणाम होता है उससे त्रिभागहीन (एक-तिहाई कम) सिद्धों की अवगाहना होती है। पूर्वावस्था में उत्कृष्ट अवगाहना पाँच सौ धनुष की मानी है, अतः मुक्त अवस्था में शुषिर (शरीर के खाली पोले अंश) से रहित आत्म-प्रदेशों के सघन हो जाने से वह घटकर त्रिभागहीन अर्थात् तीन सौ तेतीस धनुष बत्तीस अंगुल रह जाती है और सबसे कम जघन्य (दो हाथ वाले आत्माओं की) एक हाथ आठ अंगुल प्रमाण होती है। ___गाथा ७२-प्रस्तुत सूत्र में खर पृथ्वी के ३६ भेद बताए हैं, जबकि प्रज्ञापना में ४० भेद गिनाए हैं। इतने ही क्यों, यह तो स्थूल रूप से प्रमुखता की अपेक्षा से गणना है। वैसे असंख्य भेद हैं। आगमकार ने ३६ भेदों की प्रतिज्ञा की है, जबकि मणि के प्रकारों में चार भेद गणना से अधिक हैं। वृत्तिकार ने इनका उपभेद के रूप में अन्तर्भाव दूसरों में बताया है। पर, किसमें किसका अन्तर्भाव है, यह सूचित नहीं किया है। गाथा ९३-साधारण का अर्थ समान है। जिन अनन्त जीवों का समान-एक ही शरीर होता है, वे साधारण कहलाते हैं। शरीर का एकत्व उपलक्षण है। अतः उनका आहार और श्वासोच्छ्वास भी समान अर्थात् एक ही होता है। 'उपलक्षणं चैतद् आहारानपानयोरपि साधाणत्वात्-सर्वार्थसिद्धि।' । ___प्रत्येक वे कहलाते हैं, जिनका शरीर अपना-अपना भिन्न होता है। जो एक का शरीर है, वह दूसरों का नहीं होता। प्रत्येक वनस्पति जीवों की उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की आयु होती है, जघन्य अन्तर्मुहूर्त। साधारण जीवों की जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की ही आयु है। गाथा १०४-पनक का अर्थ सेवाल अर्थात् जल पर की काई है। परन्तु यहाँ कायस्थिति के वर्णन में पनक समग्र वनस्पतिकाय का वाचक है। सामान्य रूप से वनस्पति जीवों की उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्तकाल बताई है, जो प्रत्येक और साधारण दोनों की मिलकर है। अलग-अलग विशेष की अपेक्षा से तो प्रत्येक वनस्पति, बादर निगोद और सूक्ष्म निगोद जीवों की असंख्य काल की कायस्थिति है। प्रत्येक की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ७० कोटाकोटि सागरोपम है। निगोद की समुच्चय कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है। बादर निगोद की उत्कृष्ट ७० कोटाकोटि है और सूक्ष्म निगोद की असंख्यात काल। जघन्य स्थिति दोनों की अन्र्तुहूर्त है।

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