Book Title: Aetarey Aranyaka me Pran Mahima Author(s): Vishnudatt Garg Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf View full book textPage 2
________________ श्रेष्ठता सुन्दर आख्यायिकाके द्वारा सिद्ध की गई है। 'यत्र प्राणं विना सर्वाणीन्द्रियाणि विद्यमानान्यपि अविद्यमानवद् भान्ति ।' अस्तु-- ___'सोऽयमाकाशः प्राणेन बृहत्या विष्टब्धः, तद्यथाऽयमाकाशः प्राणेन बृहत्या विष्टब्धः । एवं सर्वाणि भूतानि आपिपीलिकाभ्यः प्राणेन बृहत्या विष्टब्धानीत्येवं विद्यात् ।' (ऐ० आ० २।१।६।) अर्थात् प्राण इस विश्वका धारक है। प्राणकी ही शक्तिसे ही यह आकाश अपने स्थानपर स्थित है, उसी तरह सबसे विशालतम जीवसे लेकर पिपीलिका पर्यन्त समस्त जीव इस प्राणके द्वारा ह तो विश्वका महान संस्थान, जो यह हमारे नेत्रोंके समक्ष है, वह कहीं भी नहीं रहता। जीवात्माका प्राण वायुके साथ अन्वय व्यतिरेकि संबन्ध है। इसके विना प्राणिजगत्की सत्ता सुरक्षित नहीं, और इसीलिए अनुभव कोटिमें प्रतिष्ठित ऋषि उसके साथ अपना अटूट सम्बन्ध बताता है कि तुम हमारे हो और हम तुम्हारे हैं।' 'दिन ही प्राण है रात्रि अपान है' यह प्राण ही इन्द्रियोंका अधिष्ठातृदेव होता हुआ सबका रक्षक है। यह कभी अपने व्यापारसे उपरत नहीं होता, यह भुवनोंके वीच अतिशय करके वर्तमान है, तथा दृश्यमान सम्पूर्ण जगत् इसी प्राणसे आच्छादित है। प्राण ही आयुका कारण है। कौषीतकि उपनिषदें भी प्राणके आयुष्कारके होनेकी बात स्पष्ट कहो गई है--'यावद्धि अस्मिन् शरीरे प्राणो वसति तावदायुः । अतः प्राणके लिए गोपा शब्द युक्तियुक्त है। प्राणकी महिमा जब समाजमें पर्याप्त प्रतिष्ठित हो गई तो वह उपास्य बन गया। जिसने उसकी उपासना की उसीने जीवन में अमरत्व प्राप्त किया तथा जो प्राणकी उपासनासे वञ्चित रहा वह विनाशको प्राप्त हुआ भी यह प्राण मृत्यु व अमृत भी कहलाया। इसके निकलनेसे देहके मरने (निष्क्रिय होने) में ही प्राणका मृत्युत्व व इसकी सत्ताके सद्भावमें देहकी अविनश्यत् दशा (सक्रियावस्था) में ही इसका अमृतत्व है।४ प्राणको, अन्तरिक्ष तथा वायु दोनोंका स्रष्टा व पिता कहा गया है, अतः दोनों प्राणकी परिचर्या करते रहते हैं ।५ देहसे प्राणोंकी तुलना करते समय देहको मत्यं व प्राण देवताको अमृत कहा है। एक पराश्रित है तो दूसरा स्वाश्रित _ 'मानि हीमानि शरीराणि, अमृतैषा देवता......। निचिन्वन्ति ( अन्नादिना वृद्धिमुपगच्छन्ति) हैवेमानि शरीराणि अमृतैषा देवता । (ऐ० आ० २।१।८ ।) __अद्भुत महिमाके ही कारण प्राणको सूर्य भी कहा गया है । 'प्राणो ह्यष य एष तपति ।' (ऐ० आ० २।११) के व्याख्यानमें सायणाचार्यने कहा है कि-'हमारे दृश्यमान, (आकाश) मण्डलमें स्थित होता हआ जो यह तपता है, वह प्राण ही है, आदित्य एवं प्राणमें भेद नहीं हैं। केवल स्थानगत भेद है। एक अध्यात्म संज्ञक है तो दूसरा अधिदैव ।६ प्राणोंको आदित्यरूप देने में उपनिषद भी प्रकाण है-'आदित्यो १. तदप्येतदृषिणोक्तम् । त्वमस्माकं तव स्मसीति । ऐ० आ० २।१।४ २. अहरेव प्राणः रात्रिरपानः २।१५। एष वै गोपाः, एष हीदं सर्व गोपायति नह्येष कदाचन संविशति । एष ह्यन्तर्भुवनेषु आवरीवति सर्व हीदं प्राणेनावृतम् २।१।६ । ३. स एष मृत्युञ्चैवामृतञ्च । (ऐ० आ० २।१८)। ४. स्वनिर्गमनेन देहमरणात् प्राणस्य मृत्युत्वम् । स्वावस्थानेन देहमरणाभावात् अमृतत्वम् । ५. प्राणेन सृष्टावन्तरिक्षं च वायुश्च । एवमेतौ प्राणपितरं परिचरतोऽन्तरिक्षं च वायुश्च । -सायण । ६. य एष मण्डलस्थोऽस्माभिर्दश्यमानस्तपति स एष प्राणो हि। न खल्वादित्यप्राणयोर्भेदोऽस्ति । अध्यात्ममधिदैवं च इत्येव स्थानभेदमात्रम् ।--सायण । विविध : २६९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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