Book Title: Adipuran me Jain Darshan ke Tattva Darshan Author(s): Udaychandra Jain Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 5
________________ या हर्ता नहीं। मोक्ष-भौतिकतावादी चार्वाक को छोड़कर सभी भारतीय दर्शन मोक्ष के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। सभी दार्शनिकों ने दुःख की आत्यंतिक निवृत्ति को मोक्ष कहा है। न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग के अनुसार दुःख के आत्यन्तिक उच्छेद हो जाने का नाम मोक्ष है। यह तत्व-ज्ञान से ही होता है / मीमांसा दर्शन भी दुःख के आत्यन्तिक अभाव को मोक्ष मानता है / वेदान्त दर्शन ने जीवात्मा और ब्रह्म के एकीभाव को मोक्ष कहा है। विशुद्ध सत्, चित् और आनन्द की अवस्था ही ब्रह्म है और यह अवस्था अविद्या रूप बंधन के कारण के समाप्त होने पर ही प्राप्त होती है। बौद्ध ने निर्वाण को माना है-यह सब प्रकार के अज्ञान के अभाव की अवस्था है। धम्मपद, 202/3 में निर्वाण को एक आनन्द की अवस्था, परमानन्द, पूर्णशांति, लोभ, घृणा तथा भ्रम से मुक्त कहा है। जैन दर्शन ने आत्मा की विशुद्ध अवस्था को मोक्ष कहा है / समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से अनन्त-सुख रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है और यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप साधन से प्राप्त होता है। इस अवस्था में वह अनन्त-चैतन्यमय गुण से युक्त हो जाता है / इस अवस्था में आत्मा का न तो अभाव होता है, न ही अचेतन / किसी भी सत् का विनाश नहीं होता इसलिए आत्मा का अभाव नहीं हो सकता / कर्म पुद्गल-परमाणुओं के छूट जाने पर ही मोक्ष होता है। इस अवस्था में आत्मा निज-स्वरूप में अवस्थित रहता है। आचार्य जिनसेन ने जीव की अवस्था के लिए स्वतन्त्रता और परतन्त्रता -- इन दो शब्दों का प्रयोग किया है जो अपने आप में नवीनतम हैं। उन्होंने बतलाया कि "संसार में यह जीव किसी प्रकार स्वतन्त्र नहीं है, क्योंकि कर्म-बन्धन के वश होने से यह जीव अन्य के आश्रित होकर जीवित रहता है, इसलिए वह परतन्त्र है। जीवों की इस परतन्त्रता का अभाव होना ही स्वतन्त्रता है। अर्थात् कर्म-बन्धन जीव की परतन्त्रता के कारण कहे जा सकते हैं और कर्म-बन्धन रूप परतन्त्रता (संसार) का अभाव जीव की स्वतन्त्रता (मोक्ष) का परिचायक है। धर्म और दर्शन का सम्बन्ध-धर्म और दर्शन का सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ है। ये मानव-जीवन के अनिवार्य अंग माने गये हैं। मानव का जो विचारात्मक दृष्टिकोण है, वह है दर्शन और जब वह इसे अपने जीवन में उतारने लगता है, तब वह धर्म कहलाने लगता है। दर्शन और धर्म एक दूसरे के पूरक साधन हैं या कहे जा सकते हैं। सत्य की खोज जीवन की गहराई में है। दर्शन मानव की विचारात्मक शक्ति को जागृत करने के लिए है। यह मानव का अपने जीवन के मूल्यांकन करने का साधन है। धर्म शांति, सामंजस्य, दुःख की निवृत्ति आदि कारणों तक ही मानव को ले जाता है और दर्शन जीव, जगत, ईश्वर आदि विशेष सैद्धान्तिक कारणों को तर्क-वितर्क की कसौटी पर कसकर बौद्धिक जगत में प्रयुक्त करके दिखला देता है। जिनसेन ने इसी के अनुरूप अपने पुराण में धर्म का कथन किया है.-.-."हे राजन् ! धर्म से इच्छानुसार सम्पत्ति मिलती है, इच्छानुसार सुख की प्राप्ति होती है, मनुष्य प्रसन्न रहते हैं, राज्य, सम्पदायें, भोग, योग्य कुल में जन्म, सुन्दरता, पाण्डित्य, दीर्घ आयु और आरोग्य इसी के कारण हैं। हे विभो! जिस प्रकार कारण के बिना कभी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, दीपक के बिना किसी ने प्रकाश नहीं देखा, बीज के बिना अंकुर नहीं होता, मेघ के बिना वृष्टि नहीं होती और छत्र के बिना छाया नहीं होती, उसी प्रकार धर्म के बिना उक्त सम्पदायें प्राप्त नहीं हो सकतीं। इतना ही नहीं जिस प्रकार विष खाने से जीवन नहीं होता, बंजर जमीन से धान्य उत्पन्न नहीं होता और अग्नि से शीतलता नहीं मिलती, उसी प्रकार अधर्म से सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं।" - धर्म स्वर्ग आदि अभ्युदय तथा मोक्ष पुरुषार्थ का साधन है। समग्र कल्याण का कारण धर्म है। धर्मो हि शरणं परमं अर्थात् धर्म ही परम शरण है। इस संसार में वही पुरुष श्रेष्ठ है, वही कृतार्थ है और वही पण्डित है जिसने धर्म की वास्तविकता को पहचान लिया है। इस संसार में धर्म के बिना स्वर्ग कहां? स्वर्ग के बिना सुख कहां? इसलिए सुख चाहने वाले पुरुषों को चिरकाल तक धर्म रूपी कल्पवृक्ष की सेवा करनी चाहिए। जिनसेन के अनुसार—“यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसार्थसिद्धिः सुनिश्चिता स धर्मः' अर्थात् जिससे इहलोक और परलोक की निश्चित रूप से सिद्धि होती है, वह धर्म कहलाता है / इसलिए प्राणीमात्र के प्रति अपना कर्तव्य समझ कर आत्मकल्याण और विश्व-शांति की दष्टि से धर्म-पालन अवश्य करना चाहिए। यह समाज, देश एवं राष्ट्र के गौरव का साधन है और हमारी संस्कृति-सभ्यता का भी यही रक्षक है। 1. आदिपुराण, 515-20 2. आदिपुराण, 6/20 3. 'लब्धं तेनैव सज्जन्म, स कृतार्थः स पण्डितः।', आदिपुराण, 6/130 4. 'ऋते धर्मात् कुत: स्वर्ग: कुतः स्वर्गादृते सुखम् / तस्मात् सुखाषिना सेव्यो धर्मकल्पतरुश्चिरम् // '. आदिपुराण, 9/188 5. आदिपुराण, 5/20 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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