Book Title: Adhyatmika Jivan ka Abhinna Anga Upasna
Author(s): Kamla Jain
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 10
________________ Jain Education International चतुर्थखण्ड / ७६ (४) सत्संग :- सत्पुरुषों की संगति को सत्संग कहा जाता है। इसका कितना महत्त्व है, इसे साधारणतया सभी समझते हैं। फिर भी मानय दुर्जनों के समागम से जाना प्रकार के दोषों और विकारों में लिप्त होकर कर्मबन्धन करता हुआ संसार में जन्म-मरण करता रहता है। एक पाश्चात्य विचारक ने दुर्जन साथियों की भर्त्सना करते हुए कहा है: "Evil companions are devil's agents and by these ambassadors he effects more than he could in his own person." -बुरे साथी शैतान के प्रतिनिधि होते हैं। इन दूतों के द्वारा शैतान ऐसा अनिष्ट करता है जो वह स्वयं नहीं कर सकता । उनका सदुपदेश न सुन निर्दोष आचरण, क्रिया किन्तु इसके विपरीत अगर व्यक्ति सज्जनों की, ज्ञानियों की तथा संत पुरुषों की संगति करे तो उनके समागम से वह मनोविजय की युक्तियाँ समझ सकता है, उपासना में आने वाले विघ्नों के विषय में जान सकता है तथा मन को निर्मल और सबल बनाने की शक्ति प्राप्त कर सकता है। इतना ही नहीं, मगर किन्हीं कारणों से वह सके और ज्ञान प्राप्त न कर पाए, तब भी उनके समीप रहने से उनके एवं सौम्यता, शांति आदि गुणों का अवलोकन करके अपनी वृत्तियों को पवित्र और सात्विक बना सकता है अदृश्य रूप से वायुमंडल के द्वारा उनके पवित्र तथा कल्याणकारी भावों को श्रात्मसात् कर सकता है जो हृदय में पहुँचकर शोधन का कार्य करते हुए करुणा और प्रेम का बीज वपन करते हैं । इसीलिये उपासक को संत समागम अनिवार्य बताया गया है । श्रन्यथा उसका शरीर, मन या श्रात्मा, उपासना के योग्य कदापि नहीं बन सकते । उपासना शीघ्र फल - प्रसविनी कैसे बने ? अभी हमने उपासना के सहायक तत्त्वों पर विचार किया किन्तु कुछ बातें ऐसी भी हैं, जिन्हें जीवन में दृढ़तापूर्वक उतार लेने से साधना शीघ्र फलवती हो सकती है। उन बातों या कारणों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है । (१) विश्वास -- साध्य की सिद्धि में लेशमात्र भी संदेह का न होना विश्वास कहलाता है। विश्वास से चित्त को बहुत बल मिलता है। आत्म-शक्ति अनेक गुनी बढ़ जाती है, तथा उपासक असफलता की चिन्ता से सर्वथा मुक्त होकर उपासना में तन्मय हो जाता है । पूर्ण आस्था होने पर भक्त कंकर को भी शंकर के रूप में प्रतिष्ठित करके उनसे सिद्धियां हासिल कर लेता है और इसके विपरीत प्रविश्वासी व्यक्ति शंकर को कंकर समझता हुआ अपने साध्य से दूर हो जाता है । कोई भी साधक अथवा उपासक अपने लक्ष्य पर तभी पहुँच सकता है, जबकि उसका विश्वास अपने मार्ग पर सदा एक सा बना रहे । श्रविश्वास और शंका ने अगर जन्म ले लिया तो उसका ग्रात्मबल क्षीण हो जायेगा और निर्दिष्ट लक्ष्य, पहुँचना कदापि संभव नहीं होगा। इसीलिये हमारे शास्त्र प्राचारांग सूत्र में साधक को चेतावनी देते हुए कहा है: तक "जाए सद्धाए निक्खते तमेव अनुपालेज्जा, विजहिता विसोत्तियं । " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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