Book Title: Adhyatmik Vikas ke Sopan
Author(s): Yatindrasuri
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

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Page 2
________________ (१३) सयोगी केवली गुणस्थान (१४) अयोगी केवली गुणस्थान गुणस्थानों की उपयोगिता यह एक सनातन नियम है कि जो कोई पदार्थ में परिवर्तन न होता हो तो उनके विषय में कुछ सोचना ही व्यर्थ है। अतः चेतन में कुछ परिवर्तन होता है इससे मालूम होता है कि चेतन अनादिकाल से अशुद्ध दशा में रहा था । क्रमशः उनमें विकास होने लगता है तो वह मंद या तीव्र गति से ऊपर आरोहण करता हुआ गुणस्थानों की भूमिका पार कर शुद्ध-शुद्ध निरंजन निराकार शाश्वत धाम में पूर्ण विकास की श्रेणी पर पहुंचता है। अतः चौदह गुणस्थानों की उपयोगिता चेतन के विकास निमित्त अत्यन्त आवश्यक है। (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान (मिश्र) विचित्र परिणाम की धारा में बहता चेतन कभी-कभी न तो शुद्ध पदार्थ की श्रद्धा करता है एवं न अशुद्ध पदार्थ को छोड़ता है। अतः संदिग्ध विचारधारा में डबे हए संसारी जीव को जो भूमिका प्राप्त होती है उसको सम्यग्-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं। इस भूमिका पर बैठे चेतन को मिथ्यात्व का विष मूछित अवश्य करता है, किन्तु प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा यहाँ पर उनका प्रभाव कमजोर माना गया है। प्रथम और तीसरे गुणस्थान में फर्क इतना ही है कि प्रथम में चेतन एकांत मिथ्यावादी रहता है, जबकि तीसरे में संदिग्ध दशा में रहने के कारण सत्य की ओर जाना एवं असत्य की ओर से रुकना असंभव सा लगता है। अन्न के स्वाद का अनजान की सुन्दर अन्न से निर्मित भोजन के प्रति अपेक्षा होती है वैसे मिश्र परिणाम के वशीभूत होकर चेतन शुद्ध पदार्थ केप्रति अपेक्षा धारण करता है। गुणस्थान का संक्षिप्त स्वरूप (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान वीतराग प्ररूपित विभिन्न पदार्थों के स्वरूप प्रति दर्शन-मोहनीय के प्रभाव से विपर्यास मति द्वारा शुद्ध को अशुद्ध, सत्य को असत्य, निर्मल को मलिन के रूप में प्रतिभासित करने वाली अवस्था मिथ्यात्व की मानी जाती है वही अवस्था प्रथम गुणस्थान की मानी गई है। जब तक आत्म-प्रदेश पर से दर्शन मोहनीय कर्म का आवरण नहीं हटता है तब तक चेतन शुद्ध पदार्थ प्रति रुचि धारण नहीं करता है। कोई कहता है कि जहाँ केवल अशुद्ध वातावरण एवं विपर्यास दशा है उनको गुणस्थान कैसे कहा जाय ? प्रत्युत्तर में ज्ञानी पुरुषों ने दर्शाया कि यद्यपि प्रथम गुणस्थान में दृष्टि अशुद्ध होती है फिर भी कुछ जीवों में भद्र-परिणाम, सरल प्रकृति आदि गुण दिखाई देता है अतः मिथ्यादृष्टि की भूमिका भी गुणस्थान के रूप में निर्धारित की है। (२) सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान ___अनादिकालीन संसार चक्र में परिभ्रमण करता चेतन तथाविध परिणाम के द्वारा आयुजित सात कर्मों की स्थिति को घटाकर करीबन एक कोड़ी-कोड़ी सागरोपम जितनी स्थिति रखकर राग द्वेष की निबिड ग्रंथी के समीप पहुंचता है। जो शिथिल 'पुरुषार्थी होता है वह राग द्वेष की ग्रंथी की धनता देखकर वापस लौट जाता है, जबकि जो प्रबल पुरुषार्थी होता है वह राग द्वेष की ग्रंथी को तोड़कर सम्यग्दर्शन के निर्मल परिणाम को प्राप्त करता है। वही परिणाम की धारा बढ़ाता हुवा मुक्ति के मंगल मंदिर में अग्रसर होने के बावजूद सम्यग्दर्शन की निर्मल धारा से परिस्थितिवश च्युत होता है, तब सम्यग्दर्शन का स्वाद एवं मिथ्यात्व का मिश्रण जिस भूमिका पर होता है उनको सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं। क्षीर का भोजन करने पर बमन होता है तब कुछ अंश क्षीर का स्वाद प्राप्त होता है वैसा इस गुणस्थान में चेतन को सम्यग्दर्शन का स्वाद प्राप्त होता है। (४) अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान जीवाजीवादि नव तत्वों की शुद्ध श्रद्धा की ज्योति अंत:करण में प्रज्वलित करके चेतन अनादिकालीन मिथ्यात्व के गहरे अंधेरा को दूर करने के पश्चात् शुद्ध पदार्थ की सच्ची रुचि प्राप्त करे उस भूमि का नाम अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है। यद्यपि इस भूमिका पर पहुंचने के बावजूद चारित्र मोहनीय का उदय रहता है। अतः अनित्य संसार के अनित्य पदार्थों से विरक्ति नहीं प्राप्त होती है किन्तु अनित्य पदार्थ के राग की मलीनता अंतर से धुल जाती है एवं मोक्ष मार्ग की साधना में सन्निष्ठ वफादार उम्मीदवार बनकर मुक्ति रूपी मानिनी का प्रियतम होने का सौभाग्य अवश्य प्राप्त करता है। जड़ पदार्थों की आसक्ति रूप आवरण में ढंका चेतन की पहिचान शुद्ध दर्शन से होती है। अतः यह चतुर्थ गुणस्थान मोक्ष मार्ग में सीमा स्तंभ के रूप में शोभता है। यह गुणस्थान की प्राप्ति की पहिचान शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, आस्तिक्य रूप पाँच लक्षणों से होती है । (५) विरताविरत ( देशविरति) गुणस्थान निर्मल-दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् चेतन को शुद्ध चारित्र गुण की प्राप्ति अत्यन्त आवश्यक है। किन्तु चारित्र मोहनीय कर्म के प्रभाव से चेतन विरति रूप चारित्र को प्राप्त नहीं करता है, फिर भी दर्शन प्राप्ति के बाद कुछ अंश में चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से व्रत नियम प्राप्त करता है, उनको देशविरति कहते हैं। वह देश विरति जीवन की भूमिका को विरताविरत गुणस्थान के रूप में संबोधित करते हैं। (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान इस भूमिका पर सम्यग्दृष्टि आत्मा का आगमन होने के बाद हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन, परिग्रह रूप पाँच पापों का शुद्ध मनवचनकाया से त्रिविध नवकोटि के त्याग के कारण चारित्र वी.नि.सं.२५०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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