Book Title: Adhyatma aur Vigyan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf View full book textPage 8
________________ अध्यात्म और विज्ञान २७ तिलांजलि दे दें। वैज्ञानिक उपलब्धियों का परित्याग न तो सम्भव ही है और न ही औचित्यपूर्ण, किन्तु अध्यात्म या मानवीय विवेक को इनका अनुशासक होना चाहिये | अध्यात्म ही विज्ञान का अनुशासक हो, तभी एक समग्रता या पूर्णता आएगी और मनुष्य एक साथ समृद्धि और शान्ति को पा सकेगा। ईशावास्योपनिषद् में जिसे हम पदार्थ - ज्ञान या विज्ञान कहते हैं उसे अविद्या कहा गया है और जिसे हम अध्यात्म कहते हैं उसे विद्या कहा गया है। उपनिषद्कार दोनों के सम्बन्ध को उचित बताते हुए उसका स्वरूप कहता है। वह कहता है कि जो पदार्थ विज्ञान या अविद्या की उपासना करता है, वह अन्धकार ( तमस् ) में प्रवेश करता है क्योंकि विज्ञान या पदार्थ विज्ञान अन्धा है किन्तु साथ ही वह यह भी चेतावनी देता है कि जो केवल विद्या में रत हैं वे उससे अधिक अन्धकार में चले जाते हैं। अन्ध तमः प्रविशन्ति ततो भूय इव ते ततो य उ विद्यामुपासते । विद्यायां रता: ।। ९ ।। ईशावास्योपनिषद् वस्तुतः वह जो अविद्या और विद्या दोनों की एक साथ उपासना करता है वह अविद्या द्वारा मृत्यु को पार करता है अर्थात् वह सांसारिक कष्टों से मुक्ति पाता है और विद्या द्वारा अमृत प्राप्त करता है। विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह । अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ।। ११ ।। ईशावास्योपनिषद् वस्तुतः यह अमृत आत्म- शान्ति या आत्मतोष ही है। जब विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय होगा तभी मानवता का कल्याण होगा। विज्ञान जीवन के कष्टों को समाप्त कर देगा और अध्यात्म आन्तरिक शान्ति को प्रदान करेगा। आचारांग में महावीर ने अध्यात्म के लिए 'अज्झत्थ' शब्द का प्रयोग किया है और यह बताया है कि इसी के द्वारा आत्म-विशुद्धि को प्राप्त किया जा सकता है। वस्तुतः अध्यात्म कुछ नहीं है वह आत्म-उपलब्धि या आत्म-विशुद्धि की ही एक प्रक्रिया है। उसका प्रारम्भ आत्मज्ञान से है और उसकी परिनिष्पत्ति आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति अटूट निष्ठा में है। वस्तुतः आज जितनी मात्रा में पदार्थ विज्ञान विकसित हुआ है उतनी ही मात्रा में आत्मज्ञान को विकसित होना चाहिए। विज्ञान की दौड़ में अध्यात्म पीछे रह गया है। पदार्थ को जानने के प्रयत्नों में हम अपने को भुला बैठे हैं। मेरी दृष्टि में आत्मज्ञान कोई अमूर्त, तात्त्विक आत्मा की खोज नहीं है, वह अपने आपको जानना है। अपने आपको जानने का तात्पर्य अपने में निहित वासनाओं और विकारों को देखना है। आत्मज्ञान का अर्थ होता है कि हम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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